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*सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।*
*दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२० मनोपदेश । त्रिताल
मनरे सीख सदगुरु की मानि,
ब्रह्म सुख दुख रूप माया, कही लाभ रु हानि ॥टेक॥
भजन अनन्त आनन्द, खलक खलहल१ खानि ।
सकल मत२ सब शोधि३ साधू, कही तो सौं छानि४ ॥१॥
अमर अधर५ धर्यादिक६ बिनशे, तोल तुल्य७ करि कानि ।
साँच झूठ विचार लीजे, महर ह्वै दीवानि८ ॥२॥
मुक्त प्राणी प्राणपति भज, शक्ति संकट जानि ।
वास वस्ती कीजिये मन, रचि न रज्जब रानि९ ॥३॥१॥
१२०-१२१ में मन को उपदेश कर रहै हैं -
✦ अरे मन ! सदगुरु की शिक्षा को मान, ब्रह्म सुख रूप है, माया दु:ख रूप है । ब्रह्म चिंतन से सुख प्राप्ति रूप लाभ होता है । और माया का चिंतन करने से दु:ख प्राप्ति रूप हानि होती है । यह तुझे कह दिया है ।
✦ अनन्त ब्रह्म का भजन कर तुझे अनंत आनंद मिलेगा । संसार उपद्रव१ की खान है । सम्पूर्ण सिद्धान्तों२ को खोज३ करके तथा सब संतों के विचारों को विचार४ करके यह बात तुझे कही है ।
✦ ब्रह्म५ तो अमर है और मायादिक६ सब नष्ट होंगे । तू अपने विचार तुला की कांण बराबर७ करके तोल अर्थात समता पूर्वक विचार करके देख, सत्य और मिथ्या को विचार द्वारा समझ कर सत्य को ही ग्रहण कर तभी सर्व प्रधान८ प्रभु की दया तुझ पर होगी । प्राण पति प्रभु का भजन करके प्राणी मुक्त होता है और माया का चिंतन करके दु:ख में पड़ता है । यह निश्चय जान ।
✦ अरे मन ! सदा बसने वाली ब्रह्म रूप वस्ती में ही निवास कर, मनोरथों का संसार मत बना, हृदय से मनोरथों का संसार मत बना, हृदय से मनोरथों को निकाल९ दे ।
(क्रमशः)
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