शुक्रवार, 3 मार्च 2023

ईश्वर ही कर्ता हैं

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*कबहुँ न बिहड़ै सो भला, साधु दिढ मति होइ ।*
*दादू हीरा एक रस, बाँध गाँठड़ी सोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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“जो अज्ञानी हैं, ईश्वर को नहीं मानते और संसार में रहते हैं उनका रहना मिट्टी के घरों में ही रहने के समान है । क्षीण प्रकाश से वे घर का भीतरी हिस्सा ही देखते हैं । परन्तु जिन्होंने ज्ञान-लाभ कर लिया है, ईश्वर को जान लिया है, और फिर संसार में रहते हैं, वे मानो शीशे के मकान में रहते हैं । वे घर के भीतर भी देखते हैं और बाहर भी । ज्ञान-सूर्य का प्रकाश घर के भीतर खूब प्रवेश करता है । वह आदमी घर के भीतर की चीजें बहुत ही स्पष्ट देखता है - कौनसी चीज अच्छी है, कौन बुरी; क्या नित्य है और क्या अनित्य, यह सब वह स्पष्ट रीति से देख लेता है ।
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"ईश्वर ही कर्ता हैं, और सब उनके यन्त्र की तरह हैं ।
"इसीलिए ज्ञानी के लिए अहंकार करने की जगह नहीं है ।
जिसने महिम्न-स्तव लिखा था, उसे अहंकार हो गया था । शिव के नन्दी बैल ने जब दाँत दिखलाये तब उसका अहंकार गया था । उसने देखा, एक एक दाँत उसके स्तव का एक एक मन्त्र था । इसका अर्थ क्या है, जानते हो ? ये सब मन्त्र अनादिकाल से हैं, तुमने इनका उद्धार मात्र किया है ।
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"गुरुआई करना अच्छा नहीं । ईश्वर का आदेश पाये बिना कोई आचार्य नहीं हो सकता । जो स्वयं कहता है, मैं गुरु हूँ, उसकी बुद्धि में नीचता है । तराजू तुमने देखा है न ? जिधर हलका होता है, उधर ही का पलड़ा उठ जाता है । जो आदमी खुद ऊँचा होना चाहता है, वह हलका है । सभी गुरु बनना चाहते हैं ! - शिष्य कहीं खोजने पर भी नहीं मिलता ।"
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त्रैलोक्य छोटे तखत के उत्तर ओर बैठे हुए हैं । त्रैलोक्य गाना गायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'वाह ! तुम्हारा गाना कितना सुन्दर होता है !' त्रैलोक्य तानपूरा लेकर गा रहे हैं –
गाना - तुमसे हमने दिल लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
गाना - तुम मेरे सर्वस्व हो - प्राणाधार हो - सार वस्तु के सार भाग हो ।
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गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं । कह रहे हैं - 'वाह ! तुम्हीं सब कुछ हो – वाह !!'
गाना समाप्त हो गया । छः बज गये । श्रीरामकृष्ण हाथ-मुँह धोने के लिए झाऊतल्ले की ओर जा रहे हैं । साथ में मास्टर हैं ।
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श्रीरामकृष्ण हँस-हँसकर बातें करते हुए जा रहे हैं । एकाएक मास्टर से पूछा, "क्यों जी, तुम लोगों ने खाया नहीं ? और उन लोगों ने भी नहीं खाया ?"
आज सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ता जाने का सोचा है । झाऊतल्ले से लौटते समय मास्टर से कह रहे हैं – ‘परन्तु किसकी गाड़ी में जाऊँ ?'
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शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दिया जलाया गया और धूना दिया जा रहा है । कालीमन्दिर में सब जगह दिये जल गये । शहनाई बज रही है । मन्दिरों में आरती होगी ।
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तखत पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण नाम-कीर्तन करके मां का ध्यान कर रहे हैं । आरती हो गयी । कुछ देर बाद कमरे में श्रीरामकृष्ण इधर-उधर टहल रहे हैं । बीच-बीच में भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं, और कलकत्ता जाने के लिए मास्टर से परामर्श कर रहे हैं ।
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इतने में ही नरेन्द्र आये । साथ शरद तथा और भी दो-लड़के थे । उन लोगों ने आते ही भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण का स्नेह उमड़ चला । जिस तरह छोटे बच्चे को प्यार किया जाता है, श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के मुख पर हाथ फेरकर उसी तरह प्यार करने लगे । स्नेहपूर्ण स्वरों में कहा - तू आ गया ?
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कमरे के भीतर श्रीरामकृष्ण पश्चिम की ओर मुँह करके खड़े हुए हैं । नरेन्द्र तथा अन्य लड़के श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके पूर्व की ओर मुँह करके उनके सामने वार्तालाप कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर की ओर मुँह फेरकर कह रहे हैं, "नरेन्द्र आया है तो अब कैसे जाना होगा ? आदमी भेजकर उसे बुला लिया है । अब कैसे जाना होगा ? तुम क्या कहते हो ?"
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मास्टर - जैसी आपकी आज्ञा, चाहे तो आज रहने दिया जाय ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कल चला जायेगा नाव से या गाड़ी से । (दूसरे भक्तों से) तुम आज जाओ - रात हो गयी है ।
भक्त एक एक करके प्रणाम कर बिदा हुए ।
(क्रमशः)

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