शुक्रवार, 3 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२१*

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*अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहि कलि माहिं ।*
*दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि मरि जाहिं ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२१ । त्रिताल
मनरे गहो गुरु मुख बंध१,
सकल विधि सब होत, कारज उनमनी२ ले संध३ ॥टेक॥
शब्द साधु शीश धर कर, रटण आतम रंध४ ।
ज्ञान मारग गमन कर तैं, अमर आतम कंध५ ॥१॥
मत महंत सु मान मन कर्म, पर६ हु गोरख धंध ।
एक आतमा लागि एक हि, दह९ दिशा ह्वै अंध ॥२॥
बोध बेध अबेध पंचनि, निकुल७ नाम सु नंध८ ।
मिले रज्जब ज्योति जीव हिं, जाय तन तरु गंध ॥३॥२॥
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✦ अरे मन ! गुरु के मुख से हुये ज्ञान को ग्रहण करके वृति के विषयों से रोक१ और उसे सब प्रकार से समाधि२ में जोड़३, फिर तो तेरे सब कार्य अनायस ही हो जायेंगे ।
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✦ संतों के शब्दों को शिर पर धारण करके अर्थात उन्हें श्रद्धापूर्वक मान करके उनके विचार रूप रटन द्वारा आत्मा को सिद्धावस्था४ में पहुचा । ज्ञान मार्ग से गमन करने पर ईश्वर का अंश५ आत्मा अमर हो जाता है ।
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✦ महान संत रूप महंतों के सिद्धांत को मन वचन कर्म से मान और संसार रूप गोरख धंधे से परे६ हो । एक आत्म स्वरूप मे लगकर तथा दशों९ दिशाओं से अंधा हो कर एक अद्वैत ब्रह्म स्वरूप को ही देख । जो सर्व साधारण से नहीं बेधे जाते उन अबेध पंच स्वरूप को ही देख ।
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✦ जो सर्व साधारण से नहीं बेधे जाते उन अबेध पंच ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान द्वारा विद्ध कर । कुल७-रहित ब्रह्म का नाम चिंतन करके ब्रह्मानन्द८ प्राप्त कर । जब जीव को ज्ञान ज्योति रूप ब्रह्म प्राप्त होगा तब जैसे चंदन की सुगन्ध की सुगंध से वृक्ष की प्रथम गंध चली जाती है और वह चंदन ही हो जाता है, वैसे ही ज्ञान ज्योति रूप ब्रह्म के मिलन से शरीर की जीवत्व भाव रूप गंध चली जाती है और ब्रह्म भावना आ जाती है।
(क्रमशः)

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