शुक्रवार, 3 मार्च 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #३०२

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३०२)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३०२. प्रतिपाल*
*मन रे, देखत जन्म गयो, तातैं काज न कोई भयो रे ॥टेक॥*
*मन इन्द्रिय ज्ञान विचारा, तातैं जन्म जुआ ज्यों हारा ।*
*मन झूठ साँच कर जानै, हरि साध कहैं, नहिं मानै ॥१॥*
*मन रे बादि गहे चतुराई, तातैं मनमुख बात बनाइ ।*
*मन आप आपको थापै, करता होइ बैठा आपै ॥२॥*
*मन स्वादी बहुत बनावै, मैं जान्या विषय बतावै ।*
*मन मांगै सोई दीजै, हमहिं राम दुखी क्यों कीजै ॥३॥*
*मन सबही छाड़ विकारा, प्राणी होइ गुणन तैं न्यारा ।*
*निर्गुण निज गहि रहिये, दादू साध कहैं, ते कहिये ॥४॥*
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भा०दी०-हे मनस्त्वदीयं जन्म त्वया विषयासक्त्या व्यर्थमेव हापितम् । नहि त्वया किञ्चिदपि सुकृतसाधनं साधितम् । मनोऽनुकूलेन्द्रियाणि विषयचिन्तनेन द्यूतक्रीडेव तव जन्म निष्फलं कृतम् । नहि द्यूते किञ्चित्समुपलभ्यते । पार्श्वगतं धनमपि नश्यति । त्वं मायिकं प्रपञ्चजातं सत्यमिव मन्यसे । नहि सद्वाक्येषु ते विश्वासोऽस्ति । नहि तैरुक्तं करोषि । तव चातुर्यमसत्यकल्पम् । अतस्त्वं सतां सन्मुखेऽपि वावदूको भवति, वितण्डावादेन स्वकीयमेव वचनं सत्यापयति, न तु संयुक्तं वचनं प्रामाणिकं मन्यसे । त्वं स्वयमेव सर्वस्य कर्ताऽसि । त्वं विषयसम्बन्धिनां वार्तामव करोषि, न तु भगवच्चर्या ते रोचते । त्वदृष्ट्या विषयभोग एव सम्यग् योग: । हे राम ! किमर्थं मनोऽनुकूलपदार्थान् दत्वा व्यर्थमेव मां दुःखी करोषि । सर्वान् विषयविकारान् परिहत्य गुणातीतं मां कुरु । निजस्वरूपस्य निर्गुणब्रह्मण एव चिन्तनं कुर्याम् । तस्मिन्नेवाभेदेन स्थितो भवामि । सद्धिरिव सत्यं प्रियं हितं वचनं वदामि ।
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उक्तं हि पद्मपुराणे- भूमिखण्डे -
लोभ: पापस्य बीजं हि मोहो मूलं च तस्य हि ।
असत्यं तस्य वै स्कन्धो माया शाखासु विस्तरः ॥
दम्भ कौटिल्यपत्राणि कुबुड्या पुष्पितः सदा ।
नृशंसं तस्य सौगन्धं फलमज्ञानमेव च ॥
छद्म कौटिल्यचौर्येा: क्रूरा कूटाश्च पापिनः ।
पक्षिणो मोहवृक्षस्य मायाशाखा समाश्रिता ॥
अज्ञानं यत्फलं तस्य रसोऽधर्म: प्रकीर्तितः ।
असच्छायां समाश्रित्य यो नरः परितुष्यते ॥
फलानि तस्य चाश्नाति सुपक्वानि दिने दिने ।
फलानान्तु रसेनाऽपि धर्मेण तु पालितः ॥
संतुष्टो भवेन्मर्त्यः पतनायाभिगच्छति ।
तस्माच्चिन्तां परित्यज्य पुमांल्लोभं न कारयेत्॥
यो हि विद्वान् भवेत्कान्त ! मूर्खाणां पथमेति हि
सुभार्यामिह विन्दामि कथं पुत्रानहं लभे ।
एवं चिन्तयते नित्यं दिवारात्रौ विमोहितः॥
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हे मेरे ! मन तूने तेरा जीवन विषयों में आसक्त होकर व्यर्थ ही खो दिया, तूने जरा सा भी पुण्य का साधन नहीं साधा । मन और इन्द्रियों के प्रिय विषयों का चिन्तन करते हुए जुवारी की तरह जन्म निष्फल गँवा दिया, जैसे जुआ में कुछ मिलता तो है नहीं और पास का धन भी नष्ट हो जाता है । तू मायिक प्रपञ्च को ही सत्य मानता है । सन्तों के वचनों में तेरा जरा सा भी विश्वास नहीं है ।
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उनका कहा हुआ तू नहीं करता । तेरी चतुराई झूँठी ही है । तू सन्तों के समक्ष में मनमुखी बातें बनाता है । वितण्डावाद करके अपनी बात को सत्य बनाने की चेष्टा करता है और सन्तों के वचनों को प्रामाणिक नहीं समझता है । तू ही सबका कर्ता बनता है । विषय सम्बन्धी चर्चा ही करता रहता है । झूंठ ही बकता है कि मैंने ब्रह्म को जान लिया । तू तो विषयभोग को ही योग समझता है ।
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हे प्रभो ! मेरे को मन के अनुकूल पदार्थ देकर मुझे व्यर्थ में ही क्यों दुःखी कर रहे हो? हे मेरे मन ! तू विषय विकारों को छोड़कर गुणातीत हो जा और निजस्वरूप का ही चिन्तन कर और सत्यपुरुषों की तरह सत्य, प्रिय, हितकर तथा थोड़ा बोल ।
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पद्मपुराण में कहा है कि –
पाप एक वृक्ष के समान है । लोभ उसका बीज है, मोह इसकी जड़ें हैं, असत्य उसका तना है, माया उसकी शाखाओं का विस्तार है । दम्भ और कुटिलता उसके पत्ते हैं, कुबुद्धि फूल हैं, नृशंसता उसकी गन्ध व अज्ञान उसका फल है । छल, पाखण्ड, चोरी, ईर्ष्या, क्रूरता, कूटनीति और पापाचार युक्त प्राणी उस मोहमूलक वृक्ष के पक्षी हैं, जो माया रूपी शाखाओं पर बसेरा लेते हैं । अज्ञान उस वृक्ष का फल है और अधर्म उसका रस है । तृष्णारूप जल से सींचने पर उसकी वृद्धि होती है । अश्रद्धा उसके फूलने-फलने की ऋतु है ।
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जो मनुष्य उस वृक्ष की छाया का आश्रय लेकर संतुष्ट रहता है, उसके पके हुए फलों को खोजता है, उन फलों के रस से पुष्ट होता है, वह ऊपर से कितना ही प्रसन्न क्यों न हो, वास्तव में वह पतन की और ही जा रहा है । इसलिये मानव को चिन्ताओं को छोड़कर लोभ को भी त्याग देना चाहिये । स्त्री, पुत्र और धन की चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये । हे प्रियतम ! कई विद्वान् भी मूर्खों के मार्ग का अवलम्बन करके दिन रात मोह में डूबे रहते हैं और निरन्तर इसी चिन्ता में पड़े रहते हैं कि मुझे अच्छी स्त्री और बहुत-से पुत्र कैसे मिलें ?
(क्रमशः)

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