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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३०५)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३०५. उपदेश (त्रिताल)*
*भाई रे, बाजीगर नट खेला, ऐसे आपै रहै अकेला ॥टेक॥*
*यहु बाजी खेल पसारा, सब मोहे कौतुकहारा ।*
*यहु बाजी खेल दिखावा, बाजीगर किनहुँ न पावा ॥१॥*
*इहि बाजी जगत भुलाना, बाजीगर किनहुँ न जाना ।*
*कुछ नांही सो पेखा, है सो किनहुँ न देखा ॥२॥*
*कुछ ऐसा चेटक कीन्हा, तन मन सब हर लीन्हा ।*
*बाजीगर भुरकी बाही, काहू पै लखी न जाही ॥३॥*
*बाजीगर परकासा, यहु बाजी झूठ तमासा ।*
*दादू पावा सोई, जो इहि बाजी लिप्त न होई ॥४॥*
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भादी०-ईश्वरस्य तत्कृत्यस्य च वैचित्र्यमुपवर्णयन्नाह “भाई" इति । भाई इति संबुद्ध्याऽऽत्मन स्वरहस्यवेतृत्वं पुरोवर्तिनां च कृते स्वात्मीयत्वं ध्वनितम् । एतेन तव कल्याणायेदं गुप्त रहस्यमुद्घाट्य तं प्रति स्वानुकूलत्वञ्च व्यञ्जितम् । अथ जगत्कारणभूत ईश्वर ऐन्द्रजालिक इव जगद् नाट्य रचयति । किन्तु कर्तृत्वावच्छिन्नत्वेऽपि तस्मिन् तत्कार्यप्रयुक्तेन कारणत्वेन न लिप्यते । स तु तस्मान्नितरामनासक्त इव विराजते । कर्तृत्वाकर्तृत्वरूपा विरुद्वा गुणा तत्र सोदरा इव भान्तीति तस्येदमेव वैलक्षण्यम् । तद् गुणगौरवादेव तस्य परमेश्वरत्वम् । न व क्रीडाजन्या देषगुणादिविकारा वैषम्य नैधृण्यत्वादयस्तं स्पृशन्त्यपि । तस्य स्पर्श न प्रत्यक्षरहितत्वात् । स लौकिकक्रीडादक्ष इवाप्रतिम क्रीडाप्रियः । तेन न कस्यापि साम्यं किमु न वाधिक्यं संभवति कस्यापि । एतेन लौकिकैन्द्रजालस्य तु सावसानप्रभावत्वादस्थायित्वात् । ऐश्वर्यकृत्यस्यातिशयित्वं ध्वनितम् । अस्यैन्द्रजालीयक्रियायाः प्रपञ्चभूतायाः प्रभावेण ज्ञानवन्तोऽपि विद्वांसः सकलपदार्थरहस्य- वेत्तारोऽपि मुह्यन्ति, इत्यस्य मोहशक्तिप्राबल्यम् । सत्यपि बोधप्रकर्षे ते प्रपञ्चजालबद्धा भवन्ती- तिभावः ।
'मुह्यन्ति यत्सूरयः' इति भागवतोक्तेः ।
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया महामाया प्रयच्छति॥
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इति मार्कण्डेय पुराणे-
विष्णोर्माया भगवती यया संमोहतं जगदिति श्री भागवते च । सत्यपीश्वरकृत्य भूतस्य प्रपञ्चस्य सर्व प्रत्यक्षत्वे तद्रचयितुरारम्भोऽन्तश्च न कैरपि ज्ञात: । पञ्चासत्यभूतं तदेव दृगोचरी भवति । यच्च त्रिकालाबाध्यं सद्रूपं तत्वं तन्नालोक्यते कैश्चिदपि इत्यस्ति वैचित्र्यमस्यैन्द्रजालस्य । तेन सर्वशक्ति-संपन्नेन परमात्मनैवं भूतं कश्चिच्चामत्कारादिकप्रभावो निक्षिप्तो यज्ज्योतिषाऽनावृतचक्षुष्कानां जागतिकानां मनांसि शरीराणि च परवश्यानीव गतानि । अनया मायया सदसद्विवेचिका चेतनाशक्तिरप्यावृताऽस्ति । अतो हेतोर्न ज्ञायते केनाऽपि पारमार्थिकं रहस्यमत्रत्यम् । किमेतावता न शक्यते कस्यापि पारमार्थिको बोधः, इत्याशडूय समाधते ज्ञायतेऽपि केनचित्, यस्य चेतसि तस्य ब्रह्मणो निर्मलं ज्योति: प्रकाशते, स एवैतत्प्रपञ्चस्य क्रीडामात्रस्य मिथ्यात्वमवबोद्ध पारयति । सर्वमुपदेश-सारमुपसंहरन् संक्षेपेणाह- “दादू पावा सोइ । स एव महाभागस्तं वेत्तुं पारयति यश्च तस्मिन् प्रपञ्चभूते क्रीडारूपे न लिप्यते ।
इति भावः ॥
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ईश्वर और उनके कर्मों का वैचित्र्य वर्णन करते हुए श्री दादूजी महाराज उपदेश कर रहे हैं, भाई इति । भाई इस संबोधन से मैं ब्रह्म के रहस्य को जानता हूं तथा पुरोवर्ती साधकों में अपना आत्मीय भाव ध्योतन किया है और साधकों को कल्याण का रहस्य बतलाकर शिष्यों का गुरु के प्रति अनुकूल भाव भी ध्योतित किया है ।
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इस संसार का कारणभूत परमात्मा ऐन्द्रजालिक है । वह ऐन्द्रजालिक परमात्मा इस जगत् की रचना बाजीगर के खेल की तरह करते हैं किन्तु जगत् के कारणरूपेण कर्ता होने पर भी कर्तृत्व का अभिमान नहीं करते और न कर्तृत्वधर्म से लिप्त होते हैं, किन्तु वे तो नित्य अनासक्त भाव से विराजते हैं । ईश्वर का यही वैलक्षण्य है कि उन में कर्तृत्व अकर्तृत्व ये दोनों ही विरुद्ध धर्म सहोदर भाई की तरह प्रतीत हो रहे हैं ।
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इस गुण गौरव के कारण ही ईश्वर का ऐश्वर्य बना है । सृष्टि क्रीडाजन्य दोष, विकार, वैषम्य, नैघृण्य आदि ईश्वर को छू भी नहीं सकते, क्योंकि वह स्पर्शन धर्म से अतीत है । ऐसे वह अलौकिक क्रीडा में दक्ष हैं और उसको अलौकिक क्रीडा ही प्रिय है, इस क्रीडा में ईश्वर की बराबरी कोई नहीं कर सकता तो फिर अधिक तो कोई हो ही नहीं सकता ।
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लौकिक बाजीगर का प्रभाव तो कुछ देर ही रहता है परन्तु ईश्वर की जगद् रचना रूप क्रीडा के अलौकिक होने से यह महत्त्व रखती है । ईश्वर की इस प्रपञ्च रचना रूप ऐन्द्रजालिक क्रीडा देख कर बड़े बड़े ज्ञानी विद्वान् जो सकल पदार्थों रहस्य को जानने वाले हैं, वे भी मोहित हो जाते हैं । ईश्वर की यह क्रीडा मोह शक्ति प्रधान है, अर्थात् ज्ञानी इस प्रपञ्च को मिथ्या जानते हुए भी मोहित हो जाते हैं । भागवत में यही कहा है कि भगवान् की माया से विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं ।
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मार्कण्डेयपुराण में भी –
यह भगवती महामाया विद्वानों के चित्त को भी हठात् अपने तरफ आकृष्ट करके उनको भी मोह जाल में पटक देती है ।
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भागवत में –
यह विष्णु भगवान् की माया जिससे सारा संसार मोहित हो रहा है, ईश्वर की इस रचना को देखते हुए भी किसी ने इसका आरम्भ और अन्त नहीं जान पाया, क्योंकि जो असत्य होता है, उसको देख सकते हैं । जो तीनों कालों में अबाधित रहता है, वह सत्य तत्व देखने में नहीं आता । यह ही ईशवर बाजीगर की विचित्रता है ।
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उस सर्वशक्ति संपन्न परमात्मा ने ऐसा चमत्कार डाल रखा है कि बड़े-बड़े समझदारों के तन-मन को मोहित करके वश में कर रखे हैं । इस माया ने सब असत् का विवेक करनी वाली चेतना शक्ति को भी आवृत्त कर लिया है । अतः हरेक प्राणी पारमार्थिक रहस्य को नहीं जान पाता तो क्या यह मान लिया जाय कि आज तक इस पारमार्थिक रहस्य को कोई भी नहीं जान सका ? ऐसी शंका का समाधान कर रहे हैं कि नहीं, जाना क्यों नहीं ।
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लेकिन सबने नहीं जाना, कोई कोई विरले ही जान सकते हैं । जिसके मन में सर्व क्रिया के करने वाले ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशित हो रहा है, वह ही इस जगत् की रचना को मिथ्या जान सकता है । बाकी तो सत्य मानकर मोहित हो रहे हैं । उपदेश का उपसंहार करते हुए श्री दादू जी महाराज लिख रहे हैं कि “दादू पावा सोई” अर्थात् जो इस प्रपञ्च में आसक्त नहीं होता, ऐसा ज्ञानी ही इस रहस्य को जान सकता है ।
(क्रमशः)
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