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*है तो रती, नहीं तो नांहीं, सब कुछ उत्पति होइ ।*
*हुक्मैं हाजिर सब किया, बूझे बिरला कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*रूप रहै नँद गांव सनातन,*
*आतहु खीर सु भोग लगाँवै।*
*आत प्रिया सुखदायक बालकि१,*
*रूप लिये सब सौंज२ धराँवै ॥*
*पायस३ पावत नैन घुलावत,*
*पूछ जितावत सो पछतावें।*
*फेरि करौ जनि बात धरो मन,*
*चाल चलो निज आँख भरावें ॥३१७॥*
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रूपजी नन्द गाँव में थे। उन्हीं दिनों में एक दिन सनातनजी आपके पास आये थे। रूप जी की इच्छा हुई कि आज खीर का भोग भगवान् के लगाकर वही प्रसाद सनातन जी को जिमाऊँ तो अच्छा हो।
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यह इच्छा होते ही भक्तों को परम सुखदायिनी श्रीराधाजी एक लड़की१ का रूप धारण करके खीर३ बनाने की सब सामग्री२ लाकर रूप के पास धरकर बोली- मेरी माताजी ने आपके लिये भेजा है।
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रूपजी ने खीर बनाई और भगवान् भोग लगाकर दोनों प्रेमी भक्त प्रसाद पाने लगे तब उसमें अद्भुत स्वाद का अनुभव करने लगे और उनके प्रेमानन्द से नेत्र घुलने लगे। सनातन जी ने कारण पूछा। तब रूपजी ने अपनी इच्छा की बात बताई। दोनों ने ध्यान द्वारा उक्त रहस्य को जान लिया कि वे राधाजी थीं।
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फिर सनातनजी ने सावधान करके कहा- पुनः ऐसी इच्छा कभी नहीं करना। यह मेरी बात दृढ़ता से मन में धारण कर लो और अपनी विरक्ति की चाल से ही चलो। यह सुनकर रूप जी को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। फिर श्रीलली जी की कृपा को स्मरण करके दोनों के नेत्रों में प्रेमाश्रु भर आये ॥
(क्रमशः)
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