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*लोभ मोह मद माया फंध,*
*ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥*
*दादू यहु तन यों ही जाइ,*
*राम विमुख मर गये विलाइ ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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आव रे आव मन मूरिषा, बुरौ दिषावै कांड रे ।
त्यांह का कारिज ऊजड़ै, जे घरां परायां जांइ रे ॥टेक॥
घट माहैं गोब्यंद१ है, तैठै थारौ बासौ रे ।
देषि पराया लूंबका२, क्यांन्हैं३ फिरै उदासौ रे ॥
निहिचल४ व्है, सुष ऊपजै, अति ही आनंद होए५ रे ।
गोब्यंद६ कौ सुमिरण करै, तूंनैं बुरौ कहै नहिं कोए७ रे ॥
तूं फिरतां व्हैलो बावलौ, थारी सुधि बुधि सगली जाए८ रे ।
कारिज कोई नां सरै, धका किसानैं षाए९ रे ॥
गुर गोब्यंद१० किरपा करै, तौ मन कहीं न जाए११ रे ।
टीला निंहचल व्है रहै, जे साहिब करै सहाए१२ रे ॥५१॥
(पाठान्तर : १. गोबिन्द, २. लूबिका, ३. क्यांहनैं, ४. निहचल, ५. होये, ६. गोविन्द, ७. कोये, ८. जाये, ९. षाये, १०. गोविन्द, ११. जाये, १२. सहाये ।)
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हे मूर्ख मन ! सांसारिक-विषय-भोगों से वापिस आजा । वहाँ उनमें कुछ नहीं रखा है । अतः जल्दी ही वहाँ से लौट आ । क्यों अपने आपको बुरा दिखा रहा है । अरे ! तू तो बहुत अच्छा है । बस, तुझे तेरी मात्र धारा को बदलनी है । अभी तक तू विषयों की ओर दौड़ रहा था । अब आगे तुझे परमात्मा की ओर दौड़ना है । याद रख, उनके कार्य बिगड़ते हुए देखे गए हैं जो दूसरों के घरों में जाते हैं और उनके परामर्शों को मानते हैं ।
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तेरे शरीर में ही गोविन्द का निवास है और गोविन्द के निवासस्थान में ही तेरा निवास नियत है । पराए सुख-आनन्दों को देखकर क्यों उदास हुआ फिरता है । अरे ! घट में ही अखण्ड आनन्द का सागर निवास करता है, उससे मित्रता कर ले । फिर दूसरी ओर देखने की जरूरत ही नहीं है । तू निश्चल हो जा । निश्चल होने से ही आनन्द मिलता है ।
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तू गोविन्द का नामस्मरण कर । तुझे कोई भी बुरा नहीं कहेगा । इधर-उधर घूमने से तुझे हासिल तो कुछ होगा नहीं उलटे तू बावला हो जाएगा और तेरी सारी सुधी और बुद्धि भी जाती रहेगी । इधर-उधर घूमने से तेरा कोई भी कार्य सिद्ध होने वाला नहीं । अतः तू क्यों इधर-उधर के धक्कों को खाने में लग रहा है ।
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गुरु और गोविन्द द्वारा कृपा कर देने पर मन इतस्तत भटकता नहीं है, लक्ष्यारूढ़ हो जाता है । टीला कहता है, यदि परमात्मा भी सहायता-कृपा कर दे तो मन निश्चल होकर रहने लग जाता है ॥५१॥
(क्रमशः)
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