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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३१९)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३१९. निरंजन स्वरूप । त्रिताल*
*निरंजन यूं रहै, काहू लिप्त न होइ ।*
*जल थल थावर जंगमा, गुण नहीं लागै कोइ ॥टेक॥*
*धर अंबर लागै नहिं, नहिं लागै शशिहर सूर ।*
*पाणी पवन लागै नहीं, जहाँ तहाँ भरपूर ॥१॥*
*निश वासर लागै नहीं, नहिं लागै शीतल घाम ।*
*क्षुधा तृषा लागै नहीं, घट-घट आतम राम ॥२॥*
*माया मोह लागै नहीं, नहिं लागै काया जीव ।*
*काल कर्म लागै नहीं, प्रगट मेरा पीव ॥३॥*
*इकलस एकै नूर है, इकलस एकै तेज ।*
*इकलस एकै ज्योति है, दादू खेलै सेज ॥४॥*
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जैसे सूर्य चाक्षुष दोषों से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार निरंजन निराकार ब्रह्म भी लोक-धर्मोंसे लिप्त नहीं होता । श्रुति में भी कहा है कि –
जैसे सूर्य सारे संसार का नेत्र है, फिर भी चक्षु के बाह्य दोषों से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सब भूतों में रहने वाला परमात्मा लौकिक बाह्य दुःखों से दुःखित नहीं होता । जल, स्थल, स्थावर, जंगम, चराचर प्राणियों के गुणों से भी लिपायमान नहीं होता । यह ब्रह्म जल से गीला नहीं होता, वायु उसको छू नहीं सकती ।
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वह सर्वत्र परिपूर्ण है । उसके स्वरूप में दिन रात भी नहीं होते । शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि शारीरिक धर्मों से भी वह दुःखी नहीं होता । प्रतिशरीर में रहता हुआ भी माया मोह आदि मानसिक धर्मों से भी जीव की तरह दुःखी नहीं होता । शरीराध्यास भी उसको नहीं । श्रुति में कहा है कि – बिना शरीर वाले उस परमात्मा को प्रिय अप्रिय स्पर्श भी नहीं कर सकते । उस ब्रह्म को जानने वाला भी कर्मों से पीड़ित नहीं होता । किन्तु वह ब्रह्मवेत्ता चैतन्य ज्योति स्वरूप उस एक अद्वैत आत्मा से अभिन्न हो जाता है । उसकी हृदय शैय्या पर परमानन्द की क्रीड़ा सतत होती रहती है ।
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उपनिषदों में कहा है कि-
जैसे आकाश सर्वगत होता हुआ भी सूक्ष्म होने के कारण किसी दोष से दूषित नहीं होता । उसी प्रकार परमात्मा सर्व शरीरों में रहते हुए भी देहों से लिप्त नहीं होता ।
जैसे घड़े में मदिरा भर देने पर भी घट में रहने वाला आकाश उसकी गन्ध से दूषित नहीं होता, वैसे ही आत्मा उपाधि के धर्मों से दूषित नहीं होता ।
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जैसे घर में रखा हुआ दीपक घर के धर्मों से कभी लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार उदासीन साक्षी आत्मा भी साक्ष्य धर्मों से विलक्षण होने से लिपायमान नहीं होता ।
जैसे लकड़ी में आग लकड़ी से भिन्न ही रहती है, देह में वायु देह से भिन्न है । जैसे आकाश सर्वगत है, उसी प्रकार आत्मा सर्व गुणों का आश्रय होते हुए भी उन गुणों के धर्मों से लिप्त नहीं होता, क्योंकि यह आत्मा असंगत है ।
(क्रमशः)
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