गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३३*

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*अन्तरयामी छिप रहे, हम क्यों जीवैं दूर ।*
*तुम बिन व्याकुल केशवा, नैन रहे जल पूर ॥*
*आप अपरछन ह्वै रहे, हम क्यों रैनि बिहाइ ।*
*दादू दर्शन कारणै, तलफ तलफ जीव जाइ ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ५)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३३ । त्रिताल
वेगि न मिलें आतमराम,
जात जन्म अमोल अदभुत, लेत हूं हरि नाम ॥टेक॥
भूख भंग अभंग चिंता, गिणत छाँह न धाम ।
मग१ अगम यहु भाम२ भूली, सम सु अरण्य३ ग्राम ॥१॥
विरह पीर सु नीर नैनों, महा विह्वल४ वाम५ ।
ठगी सी ठिक ठौर बिसरी, को करै गृह काम ॥२॥
दीन दुखित अनाथ अबला, गये इहिं विधि जाम६ ।
मांस गूद सु विरह विलस्यो, रहे अस्थि रु चाम ॥३॥
और कहत सु और आवत, नहीं मन मति धाम ।
रज्जब रही रोज हाँसी, ज्यों सती सल ठाम ॥४॥१४॥
✦ आत्म स्वरूप राम शीघ्र ही नहीं मिल रहे हैं । हरि नाम लेते हुये भी यह अदभुत अमूल्य जन्म व्यतीत हो रहा है ।
✦ प्रभु के दर्शन न होने से भूख नष्ट हो गई है और चिंता निरंतर बनी रहती है । छाया और घूप को भी न देख कर निरंतर प्रभु दर्शनार्थ प्रयत्नशील हैं । अगम प्रभु के साधन मार्ग१ को यह वियोगिनी नारी२ भूल गई है, अब इसके लिये वन३ और ग्राम समान हो गये हैं ।
✦ विरह व्यथा से नेत्रों में अश्रु जल आ रहा है और यह नारी५ अति महान व्याकुल४ है । यह ठगी हुई सी रहती है और अपने यथार्थ स्थान को भूल गई है, अब घर का काम कौन करे ?
✦ यह अबला अनाथ नारी दीन होकर दुखी है, इसकी जीवन रात्रि के चार अवस्था रूप चार पहर६ इस प्रकार दु:ख से ही व्यतीत हो गये हैं । मांस-मज्जा७ को विरह खा८-गया है । अब हड्डी और चमड़ा रहा है ।
✦ कहते कुछ अन्य हैं और मुख से कुछ अन्य ही निकल जाता है । मन बुद्धि ठिकाने नहीं है । जैसे चिता९ स्थान में सती को रोना और हँसना दोनों ही आने से रह जाते हैं, न तो वह हँसती है और न रोती है, वैसी ही हमारी स्थिति है । न तो रोया जाता है और न हंसा जाता है । रोने को लोग अच्छा न मानेंगे इससे दबाते हैं और दु:ख के कारण हँसी आती ही नहीं ।
(क्रमशः)

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