शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #३६२

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३६२)*
*राग सूहौ ॥२२॥(गायन समय दिन ९ से १२)*
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*३६२. राज विद्याधर ताल*
*काया माँही तारणहार, काया माँही उतरे पार ।*
*काया माँही दुस्तर तारे, काया माँही आप उबारे ॥१॥*
*काया माँही दुस्तर तिरे, काया माँही होइ उद्धरे ।*
*काया माँही निपजै आइ, काया माँही रहै समाइ ॥२॥*
*काया माँही खुले कपाट, काया माँही निरंजन हाट ।*
*काया माँही है दीदार, काया माँही देखणहार ॥३॥*
*काया माँही राम रंग राते, काया माँही प्रेम रस माते ।*
*काया माँही अविचल भये, काया माँही निहचल रहे ॥४॥*
*काया माँही जीवै जीव, काया माँही पाया पीव ।*
*काया माँही सदा आनंद, काया माँही परमानन्द ॥५॥*
*काया माँही कुशल है, सो हम देख्या आइ ।*
*दादू गुरुमुख पाइये, साधु कहैं समझाइ ॥६॥*
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दुस्तर संसार सागर से पार कराने वाला ब्रह्म इसी शरीर में निवास करता है । कामक्रोधादिकों से उत्पन्न संसृति भी इसी शरीर में हैं जो ज्ञान भक्तिकर्मों के द्वारा तारने योग्य हैं । जो दैवीमाया त्रिगुणात्मिका है जिसको शास्त्रों से दुस्तर बतलाई हैं उसको भी जीव इसी शरीर में पार कर सकता हैं ।
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इसी शरीर में रहता हुआ ही जीव वैराग्यादि सम्पत्ति के द्वारा अपनी उद्धार करने की इच्छा से अपने को पतन से बचा सकता हैं । इस देहरूपी मन्दिर में हरि की उपासना करके जीव नानारोगरुपी रस्सी से विमुक्त होकर पापों से भी मुक्त हो जाता हैं । शरीर में रहता हुआ ही जीव ईश्वर की कृपा से काम क्रोधादिकों से मुक्त हो सकता हैं । जो पूर्वकाल के साधुसंत हैं, वे भी शरीर में रहते हुए ही हरिभक्ति के द्वारा मुक्त हुए थे ।
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नाना विषयों का भोग करता हुआ जब वैरागयादि गुणों से युक्त होता है तब इसी शरीर में ज्ञान प्राप्त कर लेता हैं । ज्ञान का उदय होने के बाद मन केवल ब्रह्म में ही लीन रहता हैं । उस दशा को प्राप्त कर लेने पर जीव के अज्ञान रूपी कपाट खुल जाते हैं । कपाट के खुल जाने पर निरंजन निराकार ब्रह्म की प्राप्त रूप समाधि लग जाती है । इस शरीर में समाधि की प्राप्ति होने पर उसी समाधी में जीव को ब्रह्म का दर्शन हो जाता हैं ।
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देखने वाला जीवात्मा भी इसी शरीर के अन्तर्गत रहता हैं । ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने पर देहस्थ जीव उसके प्रेम से अनुरंजित हो जाता हैं । देहस्य परमात्मा के प्रेमपियूष से पूर्ण होने के कारण उन्मत्त हो जाता हैं । जिसको प्राप्त करके मनुष्य अविचल निश्चल हो जाता हैं । शरीर को प्राप्त करके ही जीव जीवन्मुक्त माना जाता हैं ।
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इस शरीर को प्राप्त करके अपने प्यारे परमात्मा को जीव प्राप्त कर सकता हैं । परमात्मा इस शरीर में रहकर जीव का कल्याण ही करते रहते हैं । शरीर में ही ब्रह्म प्राप्ति का आनन्द मिलता है । मैंने समाधि में गुरु की कृपा से ही सब कुछ जाना हैं । यह सब रहस्य गुरु की कृपा से जीव प्राप्त कर सकता हैं । यह उपदेश श्रीदादूजी महाराज बार-बार कर रहे हैं । साधु संत भी यही कह हैं कि यह ब्रह्मानन्द गुरुमुख से ही प्राप्त हो सकता हैं ।
(क्रमशः)

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