शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १८०*

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*दादू विरह वियोग न सहि सकूँ, तन मन धरै न धीर ।*
*कोई कहो मेरे पीव को, मेटे मेरी पीर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग कान्हड़ा १५ (गायन समय रात्रि १२ से ३)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१८० । त्रिताल 
तन मन तप्त रहत निज नाहा१,
निश दिन दु:खी पुकारता पिय पिय,
दर्शन देहु करत हूं धाहा२ ॥टेक॥
नख शिख पीर धीर नहिं तुम बिन,
दीन दुखित दीरघ दुख दाहा३ । 
सकल कलेश लेश नहिं सुख को, 
लाल४ बिना नाही जग लाहा५ ॥१॥
अंतर अग्नि जरावत जिव को, 
विपति विछोह विघ्न में चाहा६ । 
रज्जब रहति एकटक७ कामिनि, 
चरण दिखाय कंत बलि हाहा८ ॥२॥११॥
✦ हे मेरे स्वामिन्१ ! आपके बिना मेरा तन मन संतप्त रहता है । मैं रात्रि दिन प्रियतम प्रियतम ! पुकारती हुई दु:खी रहती हूं । मैं धाड़२ मार कर रोती हूं, आप मुझे दर्शन दें । 
✦ आपके बिना मेरे नख से लेकर शिखा तक शरीर में पीड़ा रहती है । मन में धैर्य नहीं रहता मैं दीन और दुखित हूं । मेरे हृदय में आपके वियोग जन्य महान् दु:ख से जलन३ रहती है । सब प्रकार दु:ख ही है, सुख का लेश भी नहीं है प्रियतम४ के बिना जगत् में जीवित रहने से कछ भी लाभ५ नहीं है । 
✦ भीतर मेरे हृदय को विरहाग्नि जला रही है यह वियोग रूप विपत्ति मेरे जीवन में विध्न रूप है, इसलिये मैं बारबार आपका साक्षात्कार ही चाहती६ हूं । मैं संत सुन्दरी टकटकी७ लगाकर आपको देखती रहती हूं, और इस समय बहुत८ विनय करके पुकार रही हूं, स्वामिन् ! अपने चरण कमल दिखाइये, मैं आपकी बलिहारी जाती हूं । 
(क्रमशः) 

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