🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*विरह अग्नि में जालिबा,दरशन के तांई।*
*दादू आतुर रोइबा, दूजा कुछ नांहि।।*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~@subhash jain*
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*विरह क्या है ?*
पूछते हो तो समझ न पाओगे; समझते तो पूछते नहीं। समझ सकते, तो भी पूछते नहीं। क्योंकि विरह कोई सिद्धांत तो नहीं है, दर्शनशास्त्र की कोई धारणा तो नहीं है - प्रीति की अनुभूति है।
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जैसे किसी ने प्रेम नहीं किया और पूछे कि प्रेम क्या है? अब कैसे समझाएं उसे, कैसे जतलाएं उसे? ऐसे जैसे अंधे ने पूछा, प्रकाश क्या है? अब क्या है उपाय बतलाने का ? और जो भी हम बताने चलेंगे, अंधे को और उलझन में डाल जायेगा। अंधा समझेगा तो नहीं, और चक्कर में, और बिबूचन में पड़ जायेगा ।
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विरह अनुभूति है; प्रेम किया हो तो जान सकते हो। और जिसने प्रेम किया है, वह विरह जान ही लेगा। प्रेम के दो पहलू हैं। पहली मुलाकात जिससे होती है वह विरह और दूसरी मुलाकात जिससे होती है वह मिलन । प्रेम के दो अंग हैं - विरह और मिलन। विरह में पकता है भक्त और मिलन में परीक्षा पूरी हो गयी, पुरस्कार मिला ।
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विरह तैयारी है, मिलन उपलब्धि है। आंसुओ से रास्ते को पाटना पड़ता है मंदिर के, तभी कोई मंदिर के देवता तक पहुंचता है। रो-रो कर काटनी पड़ती है यह लंबी रात, तभी सुबह होती है। और जितनी ही आंखें रोती हैं, उतनी ही ताजी सुबह होती है ! और जितने ही आंसू बहे होते हैं, उतने ही सुंदर सूरज का जन्म होता है।
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विरह है अवस्था पुकार की, कि लगता तो है कि तुम हो, मगर दिखाई नहीं पड़ते। लगता तो है कि तुम जरूर ही हो, क्योंकि तुम्हारे बिना कैसे यह विराट विरह है अवस्था पुकार की, कि लगता तो है कि तुम हो, मगर दिखाई नहीं पड़ते। लगता तो है कि तुम जरूर ही हो, क्योंकि तुम्हारे बिना कैसे यह विराट होगा ? कैसे चलेंगे ये चांद-तारे ? कैसे वृक्षों में बाढ़ होगी ? कैसे वृक्षों में हरे पत्ते ऊगेंगे ? कैसे फूल खिलेंगे ? कैसे पक्षी गीत गायेंगे ? कैसे जीवन का यह रहस्य जन्मेगा ? तुम हो तो जरूर; छिपे हो, अवगुंठन में हो, किसी आवरण में हो।
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विरह का अर्थ है : हम तुम्हारा घूंघट उठाएंगे, तलाशेंगे, कितनी ही हो कठिन यात्रा और कितनी ही दुर्गम, हम सब दांव पर लगायेंगे; मगर घूंघट उठायेंगे। हम तुम्हें जानकर रहेंगे, क्योंकि तुम्हें न जाना तो कुछ भी न जाना। अपने मालिक को न जाना, तो कुछ भी न जाना। जिससे आये उसे न जाना, तो कुछ भी न जाना। स्रोत को न जाना तो गंतव्य को कैसे जानेंगे ? इसलिए तुमसे पहचान करनी ही होगी। तुम जो अदृश्य हो तुम्हें दृश्य नाना ही होगा। तुम जो दूर हो, स्पर्श के पार, तुमसे आलिंगन करना ही होगा।
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अदृश्य से आलिंगन की आकांक्षा विरह है। अदृश्य को आंखों में भर लेने की आकांक्षा विरह है। जो पकड़ में नहीं आता उसे पकड़ लेने की अदम्य आकांक्षा विरह है। और स्वभावत: बात आसान नहीं, बात अति दुर्गम है। खूब कसौटी होगी, बड़ी अग्नि-परीक्षा होगी। बहुत रोओगे, बहुत तड़फोगे। तुम्हारी तड़फ ही तुम्हारी परीक्षा होगी। विरह में गलोगे, जलोगे, मिटोगे। और जिस दिन राख-राख हो जाओगे, उस दिन राख से मिलन का प्रारंभ होता......
_*ओशो*_
*मरो है जोगी मरो - (गोरख नाथ) प्रवचन-12*

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