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*सत्संगति मगन पाइये,*
*गुरु प्रसादैं राम गाइये ॥टेक॥*
*आकाश धरणी धरीजे,*
*धरणी आकाश कीजे,*
*शून्य माहिं निरख लीजे ॥१॥*
*निरख मुक्ताहल मांहैं साइर आयो,*
*अपने पिया हौं ध्यावत खोजत पायौ ॥२॥*
*सोच साइर अगोचर लहिये,*
*देव देहुरे मांही कवन कहिये ॥३॥*
*हरि को हितार्थ ऐसो लखै न कोई,*
*दादू जे पीव पावै अमर होई ॥४॥*
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*साभार : @Krishna Krishna*
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*अहोभाग्य*
बुद्ध सब गुरुओं से हताश ही हुए। क्या उन्हें कोई सिद्ध सदगुरु न मिला ? सिद्ध सदगुरु इतने आसान नहीं। रोज-रोज नहीं होते। जगह-जगह नहीं मिलते। हजारों वर्ष बीत जाते हैं, तब कभी कोई एक सिद्ध सदगुरु होता है।
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तो यह सवाल तुम्हारे मन में इसलिए उठता है कि तुम सोचते हो, सिद्ध सदगुरु तो गांव-गांव बैठे हुए हैं। सदगुरु बनकर बैठ जाना एक बात है। बाजार में दुकान खोलकर बैठ जाना एक बात है। और यह मामला कुछ ऐसा है परमात्मा का, अदृश्य का मामला है ! इसलिए पकड़ना भी बहुत मुश्किल है।
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मैंने सुना है कि अमरीका में एक दुकान पर अदृश्य हेअर पिन बिकते थे। अदृश्य ! तो स्त्रियां तो ऐसी चीजों में बड़ी उत्सुक होती हैं। अदृश्य हेअर पिन ! दिखायी भी न पड़े, और बालों में लगा भी रहे। बड़ी भीड़ लगती थी, क्यू लगता था।
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एक दिन एक औरत पहुंची। उसने डब्बा खोलकर देखा, उसमें कुछ था तो है नहीं। क्योंकि अदृश्य तो कुछ दिखायी पड़ता ही नहीं। उसने कहा, इसमें हैं भी ? उसने कहा, यह तो अदृश्य हेअर पिन हैं। ये दिखायी थोड़े ही पड़ते हैं। थोड़ा संदेह उसे उठा। उसने कहा कि अदृश्य ! माना कि अदृश्य हैं, उनको ही लेने आयी हूं लेकिन पक्का इसमें हैं ?? और ये किसी को दिखायी भी नहीं पड़ते।
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उस दुकानदार ने कहा कि तू मान न मान, आज महीने भर से तो स्टॉक में ही नहीं हैं, फिर भी बिक रहे हैं। अब ये अदृश्य हेअर पिन की कोई स्टॉक में होने की जरूरत थोड़े ही है। और महीने के पहले भी बिकते रहे, स्टॉक में होने की जरूरत कहां है ?
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यह धंधा कुछ अदृश्य का है। इसमें जरा कठिनाई है। क्योंकि तुम पकड़ नहीं सकते कि कौन बेच रहा है, कौन नहीं बेच रहा है। किसके पास है, किसके पास नहीं है। बड़ा कठिन है। यह खेल बहुत उलझा हुआ है। और इसलिए इसमें आसानी से गुरु बनकर बैठ जाना जरा भी अड़चन नहीं है।
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कोई और तरह की दुकान खोलो तो सामान बेचना पड़ता है। कोई और तरह का धंधा करो तो पकड़े जाने की कोई न कोई सुविधा है। कहीं न कहीं से कोई न कोई झंझट आ जाएगी। कितना ही धोखा दो, कितना ही कुशलता से दो, पकड़ जाओगे। लेकिन परमात्मा बेचो, कौन पकड़ेगा ? कैसे पकड़ेगा ?
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सदियां बीत जाती हैं बिना स्टॉक के बिकता है। तो तुम इससे परेशान मत होओ कि बुद्ध इतने गुरुओं के पास गए और सदगुरु न मिले। यह स्वामी योग चिन्मय का प्रश्न है। चिन्मय को यही खयाल है कि ऐसे सदगुरु हर कहीं बैठे हैं। जहां गए वहीं सदगुरु मिल जाएंगे। बहुत कठिन है।
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सौभाग्य है कि कभी कोई सदगुरु के पास पहुंच जाए। कैसे पहचानोगे ? एक ही उपाय है पहचानने का, और वह यह है कि जो गुरु कहता हो- वह सदगुरु है या नहीं, इसकी फिक्र छोड़ो- जो वह कहता हो उसे करना। अगर सदगुरु है, तो जो उसने कहा है उसे करने से तुम्हारे भीतर कुछ होना शुरू हो जाएगा। अगर सदगुरु नहीं है, तो उसके भीतर ही नहीं हुआ है, तुम्हारे भीतर कैसे हो जाएगा ?
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लेकिन सदगुरु तो कभी-कभी होते हैं। पर सदगुरु की तलाश तो सदा होती है। इसलिए झूठों को बैठने का अवसर मिल जाता है। और चूंकि तुम कभी करते ही नहीं कुछ, तुम सिर्फ सुनते हो, इसलिए तुम्हें धोखा दिया जा सकता है। तुम कुछ करोगे, तो ही तुम्हें धोखा नहीं दिया जा सकता। मेरी ऐसी समझ है कि चूंकि तुम धोखा देना चाहते हो, इसलिए तुम्हें धोखा दिया जा सकता है। तुम कुछ करना तो चाहते नहीं। तुम चाहते हो कि कोई कृपा से हो जाए किसी की।
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मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि जब आपके पास आ गए तो अब क्या ध्यान करना ? आपकी कृपा से ! वे मुझ ही को धोखा दे रहे हैं। वे मुझ ही को तरकीब बता रहे हैं, कि अब आपके पास आ गए तो अब क्या ध्यान करना ? यह और करें, हम तो श्रद्धा करते हैं। इतनी भी श्रद्धा नहीं है कि मैं जो कहूं वह करें, और श्रद्धा करते हैं !
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क्योंकि मुझ पर तुम्हारी श्रद्धा और कैसे प्रकट होगी ? जो मैं कहता हूं वह करो। तो तुम करते नहीं हो, इसलिए झूठे गुरु भी चलते जाते हैं। तुम करो, तो तुम्हारा करना ही प्रमाण हो जाएगा। उस आदमी को बार-बार दिखायी पड़ने लगेगा कि कुछ भी नहीं हो रहा है, किसी को कुछ भी नहीं हो रहा है। और लोग जाने लगे हैं। अपने आप बाजार उजड़ जाएगा।
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बुद्ध ने यही किया। वह गए तो, लेकिन जिसके पास भी गए, जो भी उसने कहा, वही किया। कुछ ने तो ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें कहीं उनसे-वह भी उन्होंने कीं- कि कहने वालों को भी दया आने लगी कि यह हम क्या करवा रहे हैं ! किसी ने कहा कि बस एक चावल का दाना रोज। इतना ही भोजन लेना। अब मूढ़तापूर्ण बातें हैं। लेकिन बुद्ध ने वह भी किया। कहते हैं, उनकी हड्डिया-हड्डिया निकल आयीं। उनका पेट पीठ से लग गया। चमड़ी ऐसी हो गयी कि छुओ तो उखड़ जाए शरीर से।
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तब उस गुरु को भी दया आने लगी। कितना ही धोखेबाज रहा हो, अब यह जरा अतिशय हो गयी। उसने हाथ जोड़े, और उसने कहा कि तुम कहीं और जाओ। जो मैं जानता था मैंने बता दिया। इससे ज्यादा मुझे कुछ पता नहीं है। ऐसे बुद्ध की निष्ठा ने ही- उनकी अपनी निष्ठा ने ही- कसौटी का काम किया।
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भटकते रहे, सबको जांच लिया, कहीं कुछ पाया नहीं। तब अकेले की यात्रा पर गए। और यह भी सोच लेने जैसा है कि तुम अक्सर चूंकि करना नहीं चाहते, इसलिए जल्दी मानना चाहते हो। तुम्हारी मानने की जल्दी भी करने से बचने की तरकीब है। जीवन में प्रत्येक चीज अर्जित करनी होती है। श्रद्धा भी इतनी आसान नहीं है, कि तुमने कर ली और हो गयी।
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संघर्ष करना होगा। तपाना पड़ेगा। स्वयं को जलाना पड़ेगा। धीरे-धीरे निखरेगा तुम्हारा कुंदन। गुजरेगा आग से स्वर्ण, शुद्ध होगा। तभी तुम्हारे भीतर श्रद्धा का आविर्भाव होगा। और सदगुरु गली-कूचे नहीं बैठे हुए हैं। कभी हजारों वर्ष में एक सिद्ध सदगुरु होता है। सदियां बीत जाती हैं खोजियों को खोजते-खोजते। इसलिए अगर कभी तुम्हें किसी सदगुरु की भनक पड़ जाए तो सौभाग्य समझना ! अहोभाग्य समझना !!
ओशो; एस धम्मो संनतनो

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