🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*पहली प्राण पशु नर कीजे, साच झूठ संसार ।*
*नीति अनीति भला बुरा, शुभ अशुभ निरधार ॥*
===============
*साभार ~@Subhash Jain*
.
ओशो से प्रश्न :
पलटूदास जी कहते हैं : “लगन-महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम’। और नक्षत्र-विज्ञान कहता है कि लगन-महूरत से काम बनने की संभावना बढ़ जाती है।… ?
.
नक्षत्र-विज्ञान सांसारिक मन की ही दौड़ है। ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता है। ज्योतिषियों के पास तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत।
संसारी डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए ! और डर का कारण है, क्योंकि सभी तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी है कि और गलत न हो जाए! ऐसे ही तो फंसे हैं, और गलत न हो जाए !
.
संसारी भयभीत है। भय के कारण सब तरफ सुरक्षा करवाने की कोशिश करता है। और जिससे सुरक्षा हो सकती है, उस एक को भूले हुए है। वही तो पलटू कहते हैं कि जिस एक के सहारे सब ठीक हो जाए, उसकी तो तू याद ही नहीं करता; और सब इंतजाम करता है : लगन-महूरत पूछता है। और एक विश्वास से, एक श्रद्धा से, उस एक को पकड़ लेने से सब सध जाए–लेकिन वह तू नहीं पकड़ता, क्योंकि वह महंगा धंधा है। उस एक को पकड़ने में स्वयं को छोड़ना पड़ता है; सिर काट कर रखना होता है।
.
इसलिए वह तो तुम नहीं कर सकते। तुम कहते हो : हम दूसरा इंतजाम करेंगे; सिर को भी बचाएंगे और लगन-महूरत पूछ लेंगे; सुरक्षा का और इंतजाम कर लेंगे; और व्यवस्था कर लेंगे; होशियारी से चलेंगे; गणित से चलेंगे; आंख खोलकर चलेंगे; संसार में सुख पाकर रहेंगे।
.
ज्योतिषी के पास सांसारिक आदमी जाता है। आध्यात्मिक आदमी को ज्योतिषी के पास जाने की क्या जरूरत ! आध्यात्मिक व्यक्ति तो ज्योतिर्मय के पास जाएगा, कि ज्योतिषी के पास जाएगा ? चांदत्तारों के बनानेवाले के पास जाएगा कि चांदत्तारों की गति का हिसाब रखनेवालों के पास जाएगा ?
.
और फिर आध्यात्मिक व्यक्ति को तो हर घड़ी शुभ है, हर पल शुभ है। क्योंकि हर पल का होना परमात्मा में है; अशुभ तो हो कैसे सकता है ! कोई भी महूरत अशुभ तो कैसे हो सकता है! यह समय की धारा उसी के प्राणों से तो प्रवाहित हो रही है। यह गंगा उसी से निकली है; उसी में बह रही है; उसी में जा कर पूर्ण होगी।
.
आध्यात्मिक व्यक्ति को तो सारा जगत् पवित्र है, सब पल-छिन सब घड़ी-दिन शुभ है। ये तो गैर-आध्यात्मिक की झंझटें हैं। वह सोचता है : कोई भूल-चूक न हो जाए; ठीक समय में निकलूं; ठीक दिन में निकलूं; ठीक दिशा में निकलूं; महूरत पूछ कर निकलूं। किससे डरे हो ? तुमने मित्र को अभी पहचाना ही नहीं; वह सब तरफ छिपा है। तुम कैसा इंतजाम कर रहे हो ? और तुम्हारे इंतजाम किए कुछ इंतजाम हो पाएगा ?
.
कितना तो सोच-सोच कर आदमी विवाह करता है और पाता क्या है ? तुम कभी सोचते भी हो कि सब विवाह इस देश में लगन-महूरत से होते हैं और फिर फल क्या होता है? फिल्मों का फल छोड़ दो। जिंदगी का पूछ रहा हूं। फिल्में तो सब शादी हुई, शहनाई बजी. . . और खत्म हो जाती हैं, वहीं खत्म हो जाती हैं।
.
शहनाई बजते-बजते ही फिल्म खत्म हो जाती है क्योंकि उसके आगे फिल्म को ले जाना खतरे से खाली नहीं है। सब कहानियां यहां समाप्त हो जाती हैं कि राजकुमारी और राजकुमार का विवाह हो गया और फिर वे सुख से रहने लगे। और उसके बाद फिर कोई सुख से रहता दिखाई पड़ता नहीं। असल में उसके बाद ही दुःख शुरू होता है। मगर उसकी बात छेड़ना ठीक भी नहीं है।
.
इतने लगन-महूरत को देखकर तुम्हारा विवाह सुख लाता है ? इतना लगन-महूरत देखकर चलते हो, जिंदगी में कभी रस आता है ? इतना सब हिसाब बनाने के बाद भी आती तो हाथ में मौत है, जो सब छीन लेती है; जो तुम्हें नग्न कर जाती है, दीन कर जाती है, दरिद्र कर जाती है। हाथ में क्या आता है इतने सारे आयोजन-होशियारी के बाद, इतने चतुराई के बाद ? पलटू कहते हैं कि अपनी चतुराई पकड़े हुए हो, मगर इस चतुराई का परिणाम क्या है ? आखिरी हिसाब में तुम्हारे हाथ क्या लगता है ?
.
सिकंदर भी खाली हाथ जाता है। यहां सभी हारते हैं। संसार में हार सुनिश्चित है। चाहे शुरू में कोई जीतता मालूम पड़े और हारता मालूम पड़े– अलग-अलग ; लेकिन आखिर में सिर्फ हार ही हाथ लगती है। जीते हुओं के हाथ भी हार लगती है; और हारे हुओं के हाथ हार तो लगती ही है। यहां जो दरिद्र वे तो दरिद्र रह ही जाते है, यहां जो धनी है वे भी तो अंततः दरिद्र सिद्ध होते हैं। यहां जिनको कोई नहीं जानता था, जिनका कोई नाम नहीं था, कोई प्रसिद्धि नहीं थी, कोई यश नहीं था–वे तो खो ही जाते हैं; लेकिन जिनको खूब जाना जाता था, बड़ी प्रसिद्धि थी–वे भी तो खो जाते हैं। मिट्टी सब को समा लेती है। चिता की लपटों में सभी समाहित हो जाता है। रेखा भी नहीं छूट जाती।
.
कितने-कितने लोग इस जमीन पर नहीं रह चुके हैं ! तुम जहां बैठे हो, वैज्ञानिक कहते हैं, जमीन के एक-एक इंच पर कम-से-कम दस-दस आदमियों की लाशें गड़ी हैं। हम सब मरघट में बैठे हैं। जहां भी हो वहां मरघट है। पूरी जमीन पर मरघट कई दफे बन चुका, बिगड़ चुका। आज यहां बस्ती है, कभी मरघट था। आज जहां मरघट है, कभी बस्ती बन जाएगी। कितनी दफे उलट-फेर हो चुके हैं ! यह जमीन कितनों को लील गई है ! यह तुम्हें भी लील जाएगी। कितनों का नाम रह गया है ? और नाम रह भी जाए तो कोई क्या रहता है ! जब तुम ही न रहे तो नाम के रहने से भी क्या होता है ?
.
लगन-महूरत पूछ कर पहुंचते कहां हो ? इसका भी कभी हिसाब किया कि लगन-महूरत ही पूछते रहोगे ? सांसारिक पूछता है लगन-महूरत। जितना सांसारिक आदमी हो, जितना महत्त्वाकांक्षी हो, उतना लगन-महूरत पूछता है। दिल्ली में तुम पाओगे, सब तरह के ज्योतिषी अड्डा जमाए बैठे हैं। चुनाव के समय उनकी खूब बन जाती है। सभी राजनेता के अपने-अपने ज्योतिषी हैं। और वे ज्योतिषी उनको कहते हैं कि बस, इस मुहूरत में खड़े हो जाओ; इस मुहूरत में भर देना फार्म चुनाव का; इस मुहूरत में ऐसा करना; यह ताबीज बांध लो, यह गंडा बांध लो; इस बार जीत निश्चित है।
.
मेरे एक मित्र हैं, ज्योतिष का धंधा करते हैं। और यह तो सब बेईमानी के धंधों में एक धंधा है। उन्होंने एक कारीगरी की, उससे खूब प्रसिद्ध हुए। राष्ट्रपति के चुनाव में दो व्यक्ति खड़े थे, दोनों को जा कर कह आए कि आपका सफल होना निश्चित है। दोनों को कह आए। दो में से एक तो कोई होगा ही। जो हो गया उसके पास जा कर पहुंचे; उसने तो उसके चरण भी छू लिए और उनको लिखित सर्टिफिकेट भी दिया कि इनका ज्योतिष बड़ा सही है, ये कह कर गए थे मुझसे। दोनों को कह आए थे।
.
जो हार गया, उसकी तो बात ही खत्म हो गई। अब उसके पास जाने की जरूरत ही नहीं है; उसको याद भी नहीं है कि कौन आया, कौन गया। मगर जो जीत गया, उसको याद दिलाने पहुंच गए, उससे सर्टिफिकेट ले आए। जब वे सर्टिफिकेट ले आए तो मैंने उनसे पूछा, मुझे पता है तुम्हारा ज्योतिष कितना, कैसा है ! मुझे पता है कि ज्योतिष में कितना क्या। तुमने यह घोषणा कैसे की थी ? उन्होंने कहा कि अब आपसे क्या छुपाना ! दोनों की घोषणा कर आए थे। एक तो जीतेगा ही न। जो जीतेगा उससे सर्टिफिकेट ले आएंगे।
.
उसका सर्टिफिकेट ले आए, फिर सारे अखबारों में सर्टिफिकेट छपवा दिया। राष्ट्रपति के साथ तस्वीर निकलवा कर छपा दी। तब से उनका धंधा खूब चल निकला। अब तो लोग उनके पास काफी आते हैं। और जब सौ आदमी आते हैं, तुम उनसे कहते ही चले जाओ कि यह होगा, वह होगा; उसमें से कुछ को तो होने वाला है; पचास को होनेवाला है।
.
जिनको हो जाएगा उनकी भीड़ बढ़ती जाती है। जिनको नहीं होता वे दूसरे ज्योतिषी खोजते हैं; तुम नहीं जंचते उनको, बात खत्म हो गई; वे किसी और के चक्कर में पड़ेंगे। लेकिन तुम्हारे पास जिनको लाभ हो जाता है, वे आने लगते हैं; उनकी भीड़ बढ़ने लगती है; उनका शोरगुल बढ़ने लगता है। फिर जब नया आदमी आता है तो वह देखता है कि इतने लोगों को लाभ हो रहा है तो जरूर लाभ होता होगा।
.
ये सब मनोवैज्ञानिक धंधे हैं। इनका मौलिक आधार सम्मोहन है। ये सब भ्रांति से चलते हैं और भ्रांति तब तक चलती है जब तक आदमी को यह भ्रम है कि संसार में कुछ पा लूंगा। डर तो लगता है कि मिलना मुश्किल है। किसको मिला! लेकिन उपाय कर लूंगा। तो फिर उपाय में कोई कमी न रह जाए। तो सभी उपाय कर लूं। इसमें अब मुहूरत भी पूछ ही लूं, कौन जाने. . .।
.
मैंने सुना है एक बड़े वैज्ञानिक के संबंध में कि वह अपनी बैठक में –स्वीडन में रहता था–घोड़े का नाल लटकाए हुए था। एक अमरीकन पत्रकार उसे मिलने गया। उसने कहा कि “आश्चर्य, आप इतने बड़े वैज्ञानिक, नोबल पुरस्कार के विजेता, और आप यह घोड़े का नाल लटकाए हुए हैं !’
.
स्वीडन में लोग लटकाते हैं। उससे लाभ होता है। घोड़े का नाल लटकाने से लोगों को लाभ होता है। अलग-अलग धारणाएं हैं लोगों की लाभ की। “. . . मगर आप ! आप इस अंधविश्वास में पड़े हैं !’ वह वैज्ञानिक हंसने लगा। उसने कहा कि मैं इसको बिल्कुल नहीं मानता। यह बिल्कुल अंधविश्वास है।
तो फिर उसने कहा : जब आप कहते ही हैं कि यह बिल्कुल अंधविश्वास है और नहीं मानते, तो फिर अपनी बैठक में क्यों लटकाए हुए हैं ?
.
उन्होंने कहा : जिस आदमी ने यह मुझे दिया, उसने कहा कि मानो या न मानो, लाभ तो होगा ही।
देखते हैं आदमी का लोभ कैसा है! “मानो या न मानो, लाभ तो होगा ही !’
“तो मैंने सोचा देख ही लें लटका कर। मानता तो मैं नहीं हूं। है तो अंधविश्वास। लेकिन जिसने मुझे दिया है वह कहता है : मानो या न मानो, लाभ होगा ही।’
लाभ की आकांक्षा है तो तुम फंसोगे कहीं न कहीं। लगन-मुहूरत देखकर कहीं न कहीं फंसोगे।
.
पलटू तो बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। पलटू तो कह रहे हैं : आध्यात्म के खोजी को क्या लगन-मुहूरत ? परमात्मा को पाने के लिए कोई विधि-विधान थोड़े ही करना पड़ता है ! सब झूठ है, कहते हैं पलटू। लगन-मुहूरत झूठ सब। परमात्मा में जाना हो तो हर मुहूरत मुहूरत है। यही क्षण जा सकते हो। तुम्हारे ऊपर निर्भर है। परमात्मा रोक थोड़े ही रहा है। वह यह थोड़े ही कह रहा है कि ठीक, समय पर आना।
.
और जिस क्षण बुद्ध को ज्ञान हुआ, वह मुहूरत शुभ था या नहीं? लेकिन इस पूरी पृथ्वी पर अज्ञानी पड़े रहे और उनमें से तो किसी को न हुआ। मुहूरत शुभ था। बुद्ध को हुआ। जिस क्षण मीरां को हुआ, मुहूरत शुभ था? लेकिन और तो किसी को न हुआ। तुम पर निर्भर है। मुहूरत तो प्रतिपल शुभ है; तुम जब आंख खोल लोगे तब हो जाएगा।
.
पलटूदास यह कह रहे हैं कि अगर पकड़ना ही हो तो क्या छोटे-मोटे ज्योतिषियों को पकड़ते हो, उस ज्योतिर्धर को पकड़ो। जिसने समय बनाया, उसी की शरण गह लो। जिसने सब पल-छिन बनाए उसकी याद से भर जाओ . . । तो कहते हैं, जब राम की याद आ जाए, जब उसके नाम का स्मरण हो जाए, वही शुभ घड़ी है। जब याद करो तभी शुभ घड़ी है।
.
ओशो प्रवचन माला "अजहूं चेत गंवार" के प्रवचन 8 से...

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें