🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*मृतक होवै सो चलै, निरंजन की बाट ।*
*दादू पावै पीव को, लंघै औघट घाट ॥*
===============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
स्वभाव के साथ एकरस हो जाने का नाम संन्यास है ।
स्वभाव के अनुकूल बहने का नाम संन्यास है ।
स्वभाव के प्रतिकूल जो जाता है, वह संसारी है;
स्वभाव के अनुकूल जो जाता है, वह संन्यासी ।
संसारी उल्टी धार चढ़ने की कोशिश करता है ।
.
नदी जा रही सागर की तरफ, वह चढ़ने की कोशिश करता है कि पहाड़ की तरफ पहुंच जाए नदी में तैर कर । संन्यासी देख लेता नदी कहां जा रही है, नदी से टकराता नहीं, छोड़ देता है शिथिलगात । इस अपने को नदी के प्रवाह में सहज भाव से छोड़ देने का नाम : श्रद्धा; सत्संग । और छोड़ते ही नाव की भी जरूरत नहीं पड़ती । नदी स्वयं तुम्हें ले चलती है ।
.
तुमने एक मजा देखा ? जिंदा आदमी डूब जाता है, मुर्दा आदमी तैरने लगता है । मुर्दे को कोई नदी नहीं डुबा सकती । तुम मुर्दे को डुबाओ भी तो निकल-निकल कर बाहर आ जाता है । मुर्दा भी गजब का है ! जिंदा डूब जाता है । जिंदे को तैरना आना चाहिए, तब भी बामुश्किल बच पाये ! और यह सागर है विस्तीर्ण; इसमें कितना तैरोगे ? थक ही जाओगे !
.
कालजयी राह पर -- क्षणजीवी पांव की -- क्या बिसात ? हो न हो !
..
लेकिन मुर्दे को कोई नदी नहीं डुबा पाती, कोई सागर नहीं डुबा पाता । मुर्दे का राज क्या है, रहस्य क्या है ? राज इतना है कि मुर्दा है नहीं; इसलिए स्वभाव के प्रतिकूल नहीं जा सकता । स्वभाव के अनुकूल ही जाता है --- कोई और उपाय नहीं है । होता तो कुछ हाथ-पैर मारता; है ही नहीं । सब भांति नदी के साथ राजी है । इसलिए नदी स्वयं उसे उठा लेती है ।
.
जिसने समर्पण किया स्वभाव में, स्वभाव स्वयं उसे उठा लेता है । जिसने छोडा़ अपने को परमात्मा के चरणों में, उसको फिर कोई सागर नहीं डुबा सकता । वह डूबेगा भी तो उबर जाएगा । उसे मंझधार में भी किनारा मिल जायेगा । उसे डुबाने का उपाय ही नहीं है ।
.
इसलिए संन्यास की प्राचीनतम परिभाषा है : ऐसे जीना जैसे तुम हो ही नहीं; जैसे तुम मर ही गए । मुर्दा होकर जीना संन्यास की परिभाषा है । जीवन अभिनय रह जाए । ठीक है, जो करना है, कर रहे हैं, मगर न कोई लगाव है, न कोई आसक्ति है । हो तो ठीक, न हो तो ठीक ।
.
सफलता और विफलता एक-से मालूम पड़ने लगे; यश और अपयश में इंच-भर भेद न रह जाए; लोगों की गालियां और लोगों के गीत एक-से अनुभव में आने लगें; फिर तुम्हें इस संसार में कोई दुःख नहीं, कोई पीड़ा नहीं । फिर यह संसार मिट गया । फिर इस संसार में तुम्हें चारों तरफ परमात्मा ही आंदोलित होता हुआ मालूम पडे़गा ।
.
करने योग्य बस एक ही बात है : स्वभाव के साथ सगाई । उसे तुम जो भी नाम देना चाहो, तुम्हारी मर्जी । भक्तों ने उसे नाम-स्मरण कहा है, प्रार्थना कहा है, पूजा कहा है, अर्चना कहा है, उपासना कहा है । लेकिन लोगों ने सब भ्रष्ट कर दिया । उन्होंने पूजा दो कौडी़ की कर दी; उन्होंने अर्चना औपचारिक कर दी; उनकी प्रार्थना पाखंड हो गयी । वे कुछ और ही करने लगे पूजा और प्रार्थना के नाम पर ।
.
पूजा और प्रार्थना के लिए न तो मंदिर जाने की जरूरत है, न मस्जिद, न गिरजा, न गुरुद्वारा । पूजा और प्रार्थना के लिए तो स्वयं के भीतर जाने की जरूरत है । तुम्हारा उठना-बैठना, तुम्हारा बोलना-चलना-सोना, तुम्हारी गति ही आरती बननी चाहिए । तुम्हारे जीवन की शैली ही प्रार्थनापूर्ण हो जानी चाहिए ।
.
प्रार्थना कोई अलग-थलग चीज न हो, कि उठे सुबह और घड़ी आधा घड़ी कर ली और निपट गए, कि झंझट मिटी, और फिर तेईस घंटे भूल-भाल गए । घड़ी में जिसको बनाया, तेईस घंटे में पोंछ डाला । स्वभावतः तेईस घंटे जीतेंगे, एक घंटा नहीं जीत सकता । एक घंटा मकान बनाओगे और तेईस घंटे गिराओगे, मकान कभी बनेगा ?
.
प्रार्थना तो तुम्हारी श्वास-श्वास में समा जाए । उठो तो प्रार्थना में; बैठो तो प्रार्थना में, बोलो तो प्रार्थना में, चुप रहो तो प्रार्थना में । बाजार, तो प्रार्थना; घर, तो प्रार्थना । प्रार्थना ऐसे हो जैसे श्वास का चलना; जैसे तुम्हारे शरीर में रक्त का प्रवाह है; जैसे तुम्हारी आंखों का झपकना; ऐसी स्वाभाविक हो जाए ! ऐसी स्वाभाविक हो जाती है । ऐसी स्वाभाविक होनी ही चाहिए । ऐसी स्वाभाविक हो, हम इस तरह ही निर्मित हुए हैं ।
.
आश्चर्य यह है कि कैसे अस्वाभाविक हो गया है सब ! क्यों हम परमात्मा से टूट गए हैं, यह आश्चर्य की बात है । जो जुड़ जाते हैं, उसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है । वह तो होना ही था । वह तो हमारी नियति है । फूल खिल जाए, यह तो स्वाभाविक है । कोई कली खिले ही न, वसंतों पर वसंत आएं और कली खिले ही न, तो कुछ चमत्कार हो रहा है ।
.
और फूल खिल जाए, इसमें क्या चमत्कार है ? बीज टूटे और वृक्ष बन जाए -- इसमें क्या चमत्कार है ? लेकिन वर्षा पर वर्षा हो और बीज बीज ही बना रहे, तो चमत्कार है । प्रकृति के प्रतिकूल कुछ हो तो चमत्कार है । अनुकूल हो तो क्या चमत्कार है । परमात्मा को पा लेना चमत्कार नहीं है --- सबसे सहज घटना है; जीवन की सहजतम । इसलिए गुलाल ने कहा है --- सहज नाम, सहज गति, सहज साधना ।
.
!! ओशो !!
.jpg)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें