🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*जे हम जाण्या एक कर,*
*तो काहे लोक रिसाइ ।*
*मेरा था सो मैं लिया, लोगों का क्या जाइ ॥*
===============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
*॥ओशो नमन॥*
---------------
लुधियाना से आए हुए एक जैन मित्र ने पूछा है कि किसी बुद्धपुरुष ने कभी भी अपने प्रवचन के लिए फीस नहीं लगाई ? वह बुद्धपुरुषों की गलती थी, इसमें मैं क्या करूं ! इसलिए तुम जैसे नालायक उनके साथ जुड़ गए। मैं वह गलती नहीं करूंगा। मेरे अपने जीने का ढंग है। किसी बुद्धपुरुष से मुझसे क्या लेना-देना। वे अपने ढंग से जीए; मुझसे तो पूछा नहीं ! मैं उनसे क्यों पूछूं !
.
महावीर को नग्न रहना था, वे नग्न रहे। बुद्ध तो नग्न नहीं रहे। कृष्ण तो नग्न नहीं रहे। ये सज्जन उनके पास पहुंच गए होते। और जरूर लुधियाना से लोग उनके पास पहुंचते रहे होंगे ! पंजाब में तो एक से एक अदभुत लोग पैदा होते हैं।
.
बुद्ध से लोग जा कर पूछते थे कि महावीर ने तो वस्त्र छोड़ दिए। आपने वस्त्र क्यों नहीं छोड़े ? और महावीर से लोग पूछते थे कि बुद्ध ने वस्त्र नहीं छोड़े; आपने वस्त्र क्यों छोड़े ? कृष्ण तो बांसुरी बजा रहे हैं ! आपकी बांसुरी कहां है ? और राम तो धनुष-बाण लिए खड़े हैं। और आप नंग-धड़ंग खड़े हैं ! हर बुद्धपुरुष का अपना ढंग होगा। बुद्धुओं को छांटने का मेरा अपना ढंग है। मैं बुद्धुओं पर मेहनत नहीं करना चाहता।
.
और जैन हैं, तो गरीब तो नहीं होंगे। पांच-दस रुपए बचाने के लिए ऐसे दीवाने हो रहे हैं ! यह नहीं दिखाई पड़ेगा उन्हें कि हम पांच-दस रुपए बचाने की बात कर रहे हैं। मगर बात को यूं छिपाएंगे कि किसी बुद्धपुरुष ने तो फीस लगाई नहीं ! पांच-दस रुपये बचाने हैं कुल जमा। और बुद्धपुरुषों ने तुम्हें क्या समझाया–कि परिग्रह मत रखना। तुमसे कम से कम पांच-दस रुपए का परिग्रह छुटवा रहा हूं–और क्या ! इतना भी नहीं छूटता ! और क्या खाक छोड़ोगे !
.
और मैं कोई भिखारी नहीं हूं, इसलिए दान मांगता नहीं; फीस लेता हूं। भीख क्यों मैं मांगूं ? मैं कोई भिखारी हूं ! तुम्हें भीख देने का मजा है। तुम चाहते होओगे कि कोई भीख मांगे। तो तुम्हें मजा तो रहे–कि हमने दान दिया ! वह अकड़ भी तुम्हारी यहां नहीं टिकने वाली। वह अहंकार भी तुम्हारा मैं यहां सुरक्षित नहीं रखता।
.
यहां तो भीतर आना है, तो तुम्हें अपनी उत्सुकता जाहिर करनी पड़ेगी। और तुम आ रहे हो। तुम्हें कोई जबर्दस्ती बुला नहीं रहा है। तुम्हारी आकांक्षा हो–आओ। और तुम्हें पैसा बचाना हो, तो मत आओ। लेकिन मुझे सलाह मत दो। मैं किसी की सलाह कभी माना नहीं। और मुझे जो सलाह देने की हिम्मत करता है, वह क्या खाक मुझसे कुछ सीख कर जा सकेगा !
.
जो यहां सलाह देने आया है, वह सलाह कैसे ले सकेगा ? एक ही काम कर लो, तो बहुत! इतनी बुद्धिमानी न दिखाओ! मुझे अपने ढंग से जीना है। अपने ढंग से ही जीऊंगा। इस तरह के कूड़ा-करकट को मैं यहां पसंद भी नहीं करता। उन्होंने लिखा है, अब तो आपका आश्रम आत्मनिर्भर हो गया है। अब फीस क्यों ? जैसे कि इनके द्वारा आत्मनिर्भर हो गया हो ! जैसे कि तुम्हारी फीस से आत्मनिर्भर हो गया हो !
.
और तुम्हें क्या पता इस आश्रम को कितना बड़ा होना है। यह आश्रम कभी भी इतना आत्मनिर्भर नहीं हो जाएगा कि इसको फीस की जरूरत न रहे। क्योंकि यह विकासमान है। यह तो बढ़ता ही चला जाएगा। यह फैलता ही चला जाएगा। इस आश्रम में कम से कम एक लाख संन्यासी तो होने ही चाहिए। इससे कम क्या चलेगा ! और तुम पांच-दस रुपए के लिए मरे जा रहे हो। मगर तुम यह सोच रहे हो कि तुमने बड़ी कीमत की बात कही है। जरा मुझसे कुछ बातें कहने के पहले सोच लिया करे। यहां सलाह नहीं चलेगी। मुझे पता है, मैं क्या कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं।
.
गुरजिएफ ने अपनी पहली किताब छापी; तो उसके दाम रखे उसने–एक हजार रुपए। उस जमाने में, आज से पचास साल पहले, एक हजार रुपया बहुत कीमती चीज थी। आज से डेढ़ सौ साल पहले ब्रिटिश गवर्नमेंट ने पूरा का पूरा कश्मीर गुलाब सिंह को, कर्णसिंह के दादा-परदादा को, सिर्फ तीस लाख रुपए में बेच दिया था। पूरा कश्मीर ! और आज से तीन सौ साल पहले पूरा न्यूयार्क वहां के आदिवासियों ने परदेश से आए हुए लोगों के लिए सिर्फ तीस रुपए में बेच दिया था–पूरा न्यूयार्क !
.
आज से पचास साल पहले हजार रुपए की बड़ी कीमत थी। जो भी लेने की सोचता किताब, उसकी हिम्मत न होती। हजार रुपए ! लोग गुरजिएफ से पूछते कि किसी बुद्धपुरुष ने कभी अपनी किताबों के ऐसे दाम नहीं रखे ? गुरजिएफ कहता, उनकी वे जानें। मेरी मैं जानता हूं।
.
जो आदमी हजार रुपए नहीं चुका सकता, उसकी कोई अभीप्सा नहीं है। उसकी कोई आकांक्षा नहीं है। सत्य मुफ्त नहीं मिलता। और तुम भाषा समझते हो धन की। धन की ही एकमात्र भाषा तुम समझते हो। उसको ही छोड़ने में तुम्हारी आत्मा एकदम कष्ट पाने लगती है।
.
तो गुरजिएफ ने अपनी किताब…एक हजार पन्नों की किताब है। उसमें सो पन्ने भूमिका के कटवा रखे थे। और बाकी नौ सौ पन्ने जुड़े हुए थे; काटे नहीं थे। तो वह कहता कि तुम ले जाओ। सौ पन्ने पढ़ लेना। अगर न जंचें, तो अपने हजार रुपए वापस ले जाना और किताब वापस कर देना। अगर जंचें तो ही आगे के पन्ने काटना। नहीं तो काटना मत। काट लिए, तो फिर किताब वापस नहीं लूंगा।
.
लेकिन वे सौ पन्ने इतने अदभुत थे कि मुश्किल था कि आदमी बिना काटे बच जाए। मगर उसने तो बात साफ कर दी थी कि सौ पन्ने पढ़ लो। मुफ्त पढ़ लो। फिर आगे मत काटना। अपने पैसे वापस ले जाना। किताब लौटा देना। तुमने एक दिन सुन लिया। अगर बात न जमती हो, अगर तुम्हें दस रुपए, पांच रुपए बहुत प्यारे लगते हों–अपने पैसे बचाओ और लुधियाना भागो वापस। यहां क्या कर रहे हो ? क्यों समय खराब कर रहे हो ?
.
लेकिन ये छोटी-छोटी बातें, ये टुच्ची बातें तुम्हें भारी मूल्य की मालूम पड़ती हैं दस रुपए देने में घबड़ाते हो और परमात्मा को खोजने निकले हो ! और जब मैं तुम्हारा अहंकार मांगूंगा, तो क्या करोगे ! जेब खाली कर नहीं सकते और जब मैं तुमसे कहूंगा कि अपने प्राण ही खाली कर दो–कैसे कर सकोगे ? ये मेरी अपनी विधियां हैं; मेरे अपने उपाय हैं। और मैं किसी बुद्धपुरुष का अनुकरण नहीं हूं। मैं अपने ढंग का आदमी हूं। और अपने ढंग से ही जीऊंगा।
ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-09) .

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें