सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

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*मति मोटी उस साधु की,*
*द्वै पख रहित समान ।*
*दादू आपा मेट कर, सेवा करै सुजान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*॥ओशो नमन॥*
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बुद्ध कहा करते थे—कोई उनसे मिलने आता, तो वे उससे कहा करते थे —कि तुम जब मिलने आए थे और जब तुम विदा होओगे, तो वही नहीं होओगे जो मिलने आया था।
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घंटेभर में बहुत कुछ बदल जाता है। एक आदमी सत्तर साल में कोई दस बार पूरा का पूरा बदल जाता है। हर सात साल में शरीर के सब अणु—परमाणु बदल जाते हैं। प्रतिक्षण शरीर में कुछ मर रहा है और बाहर फेंका जा रहा है। प्रतिक्षण शरीर में नया जीवित हो रहा है, नया आ रहा है, भोजन से आप नया डाल रहे हैं। और प्रतिपल शरीर से बहुत कुछ बाहर फेंका जा रहा है। सात साल में पूरी शरीर बदल जाता है। लेकिन हम कहे चले जाते हैं कि मै वही हूं। आकृति की समानता, आकृति की एकता बन जाती है।
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फिल्म देखते हैं कभी आप। अगर परदे पर फिल्म को धीमे—धीमे चलाया जाए, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे। इतना हाथ, पैर से इतना ऊपर सिर तक उठे, इतने हाथ के उठने के लिए हजारों चित्र लेने पड़ते हैं। फिर वे चित्र एकदम से तेजी से चलाए जाते हैं। एक चित्र इतना ऊपर दूसरा और ऊपर, तीसरा और ऊपर, चौथा और ऊपर। इतनी तेजी से घूमने से हाथ उठता हुआ मालूम पड़ता है। । लेकिन अगर उन्हें धीमे चलाया जाए तो आप पाएंगे कि हाथ के हजार चित्र लेने पड़े हैं।
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ठीक ऐसे ही, जब हम एक व्यक्ति को देख रहे हैं, तो हम एक ही व्यक्ति को नहीं देख रहे हैं। जितनी देर हमने देखा, उस बीच हजार चित्र हमारी आंखों ने ग्रहण किए हैं। भीतर चित्र संश्लिष्ट हुए और एक आकृति हमारे मन में बनी। जब तक वह बनी है, तब तक बाहर सब बदल गया है।
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विराट आकाश में तारे दिखाई पड़ते हैं। जो तारे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे वहीं नहीं होते हैं, जहां दिखाई पड़ते हैं। वहां कभी थे। क्योंकि जो निकटतम तारा है, उससे भी हम तक आने में कोई चार साल रोशनी को लग जाते है। और रोशनी धीमी नहीं चलती। रोशनी चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड से प्रकाश की किरण यात्रा करती है हम तक। 
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चार साल लगते हैं, निकटतम तारे से हम तक पहुंचने में। जब हमारे पास किरण पहुंचती है, तो हमें तारा वहा दिखाई पड़ता है, जहां चार साल पहले था। इस बीच हो सकता है कि रहा ही न हो, बिखर गया हो। और इतना तो तय है कि उस जगह अब नहीं होगा, जहां चार साल पहले था। इस बीच में वह करोड़ों, अरबों, खरबों मील की यात्रा कर गया है।
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इसलिए रात हमें जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे वहां नहीं हैं, जहां दिखाई पड़ते है। रात बड़ी झूठी है, तारे बिलकुल झूठे हैं। कोई तारा वहां नहीं है। और दूर के तारे हैं। किसी तारे को सौ वर्ष लगते हैं, हजार वर्ष लगते हैं रोशनी पहुंचाने में; करोड़ वर्ष लगते हैं। ऐसे तारे हैँ कि जब पृथ्वी बनी थी—कोई चार अरब वर्ष पहले—तब से उनकी चली रोशनी अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची। इन चार अरब वर्षों में न मालूम क्या हो गया होगा !
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जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं है, जो है। उतनी देर में भी बदल जाता है। जब आंख से मैं देखता हूं आपके चेहरे को, तो आपसे किरण मुझ तक आती है, तब तक भी समय गुजरा। आप वही नहीं होते हैं। इस बीच भीतर सब कुछ बदल गया है। आकृति—सदा की तो बात दूर—क्षणभर भी एक नहीं रहती।
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हेराक्लतु ने कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम रिवर—एक ही नदी में दोबारा नहीं उतर सकते। यह भी जरा ठीक नहीं है, बिलकुल ठीक नहीं है। एक ही नदी में एक बार भी उतरना बहुत मुश्किल है, दोबारा उतरना तो असंभव है। एक नदी में एक बार भी उतरना मुश्किल है ! क्योंकि जब पैर आपका नदी की सतह को छूता है, तब नीचे नदी भागी जा रही है। जब पैर और थोड़ा नीचे जाता है, तब ऊपर नदी भागी जा रही है। जब पैर और नीचे जाता है, तब नदी भागी जा रही है। आपका पैर नदी में एक फीट उतरता है, उस बीच नदी का सारा पानी भागा जा रहा है। जब आप ऊपर छुए थे, तब नीचे का पानी भाग गया है। जब आप नीचे पहुंचें, तब तक ऊपर का पानी नहीं है।
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आकृति तो नदी की तरह भाग रही है। लेकिन आकृति हमें थिर दिखाई पड़ती है। समानता की वजह से तादात्म्य मालूम होता है। वही है जो कल देखा था, वही है जो सुबह देखा था, वही है। प्रतिपल आकृति बदली जा रही है। यह आकृतियों का जो जगत, यह रूप का जो जगत है, अर्जुन। इस रूप के जगत के प्रति चिंतित है बहुत। हम भी चिंतित हैं बहुत। 
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जो मर ही रहा है प्रतिपल, उसके लिए वह कह रहा है कि ये मर जाएंगे तो क्या होगा ? जो मर ही रहा है, जिसे बचाने का कोई उपाय नहीं है, उसके लिए वह चिंतित है; वह असंभव के लिए चिंतित है। और जो असंभव के लिए चिंतित है, वह चिंता से कभी मुक्त नहीं हो सकता। असंभव की चिंता ही विक्षिप्तता बन जाती है।
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आकृति को सदा बचाना तो दूर, क्षणभर भी बचाना मुश्किल है। एक आकृति का जगत है—रूप का, ध्वनि का, किरण का, तरंगों का—वह कंपित है पूरे समय। सब बदला जा रहा है। अभी हम यहां इतने लोग बैठे हैं, हम सब बदले जा रहे हैं, सब कंपित हैं, सब तरंगायित हैं, सब वेवरिंग हैं, सब बदल रहा है। 
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इस बदलाहट के जगत को, जो भी सोचता हो बचाने की आकांक्षा, वह असंभव आकांक्षा कर रहा है। असंभव आकांक्षाओं के किनारे टकराकर ही मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है। कृष्‍ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू जो कह रहा है कि ये मर जाएंगे, तो मैं तुझे कहता हूं ? ये पहले भी थे, ये बाद में भी होंगे। तू इनके मरने की चिंता छोड़ दे। क्यों ?
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मुझे सुकरात की घटना याद आती है। सुकरात जब मर रहा था, तो उसके एक मित्र ने, क्रेटो ने पूछा कि आप मर जाएंगे, लेकिन आप चिंतित और परेज्ञान नहीं दिखाई पड़ते ! तो सुकरात ने कहा कि मैं इसलिए चिंतित और परेज्ञान नहीं हूं ? क्योंकि मैं सोचता हूं कि यदि मरकर मर ही जाऊंगा, तब तो चिंता का कोई कारण ही नहीं है। क्योंकि जब बचूंगा ही नहीं, तो चिंता कौन करेगा! दुःखी कौन होगा ! पीड़ित कौन होगा ! कौन जानेगा कि मैं मर गया !
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अगर मैं मर ही जाऊंगा, तो जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं मर गया। जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं कभी था। जानने को कोई नहीं बचेगा कि सुकरात जैसा कुछ था। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है। और अगर नहीं मरा, अगर नहीं मरा मरकर भी, तब तो चिंता का कोई कारण ही नहीं है। और दो ही संभावनाएं हैं—सुकरात ने कहा—या तो मैं मर ही जाऊंगा और या फिर नहीं ही मरूंगा। और तीसरी कोई भी संभावना नहीं है। इसलिए मैं निश्चित हूं।
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कृष्‍ण अर्जुन को कह रहे हैं कि जो मरने वाला है, वह तेरे बचाने से नहीं बचेगा। और जो नहीं मरने वाला है, वह तेरे मारने से नहीं मर सकता है। इसलिए तू व्यर्थ की चिंता में पड़ रहा है। इस व्यर्थ की चिंता को छोड़।
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यह शायद रूप और अरूप के बीच जो जगत का फैलाव है, अगर हम रूप की तरफ से पकड़े, तब भी चिंता व्यर्थ है; क्योंकि जो मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही जाएगा, पानी पर खींची गई लकीर है। खिंच भी नहीं पाती और मिटनी शुरू हो जाती है। हाथ उठ भी नहीं पाता और मिट गई होती है। अगर हम अरूप से सोचें, तो जो नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा, वह कभी मिटा नहीं है। 
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लेकिन अरूप से— हमारा कोई परिचय नहीं है, अर्जुन का भी कोई परिचय नहीं है। यह भी समझ लेना जरूरी है कि अर्जुन की चिंता एक और दूसरी ‘ सूचना भी देती है। अर्जुन कहता है, ये सब मर जाएंगे। इसका मतलब है कि अर्जुन अपने को भी रूप ही समझता है। था ऐसा नहीं कहेगा। हम दूसरों के संबंध में जो कहते हैं, वह हमारे ?! संबंध में ही कहा गया होता है। जब मैं किसी को मरते देखकर सोचता हूं कि मर गया, खो गया, मिट गया, तब मुझे जानना चाहिए कि मुझे अपने भीतर भी उसका पता नहीं है, जो नहीं मिटता है, नहीं मरता है, नहीं खोता है।
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अर्जुन जब चिंता जाहिर कर रहा है कि ये मर जाएंगे, तो वह अपनी मृत्यु की ही चिंता जाहिर कर रहा है। वह यह जानता नहीं कि उसके भीतर भी कुछ है, जो नहीं मरता है। और जब कृष्‍ण कह रहे हैं कि ये नहीं मरेंगे, तब कृष्‍ण अपने संबंध में ही कह रहे हैं, क्योंकि वे उसे जानते हैं, जो नहीं मरता है।
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हमारा बाहर का ज्ञान, हमारे भीतर के ज्ञान का ही विस्तार है। हमारा जगत का ज्ञान, हमारे स्वयं के ज्ञान का ही विस्तार है, एक्सटेंशन है। जो हम अपने संबंध में जानते हैं, उसे ही फैलाकर हम समस्त के संबंध में जान लेते हैं। और जो हम अपने संबंध में नहीं जानते, उसे हम किसी और के संबंध में कभी नहीं जान सकते। आत्म—ज्ञान ही ज्ञान है; बाकी सब ज्ञान गहरे अज्ञान पर खड़ा होता है। और अज्ञान पर खड़े जान का कोई भी भरोसा नहीं।
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अब वह अर्जुन बड़े ज्ञान की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है; वह बड़े धर्म की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है; लेकिन उसे इतना भी पता नहीं है कि अरूप भी है कोई, निराकार भी है कोई अस्तित्व के आधार में कुछ है, जो अमृत है—इसका उसे कोई भी पता नहीं है। और जिसे अमृत का पता नहीं है, उसके लिए जीवन में अभी ज्ञान की कोई भी किरण नहीं फूटी। जिसे मृत्यु का पता है, वह घने अंधकार और अज्ञान में खड़ा है।
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कसौटी यही है, अगर ज्ञात है आपको सिर्फ मृत्यु, तो अज्ञान आधार है; और अगर शात है आपको अमृत, नहीं जो मरता, तो ज्ञान आधार है। अगर मृत्यु का भय है मन में—चाहे दूसरे की, चाहे अपनी, इससे कोई भेद नहीं पड़ता—अगर मृत्यु का भय है मन में, तो गवाही है वह भय इस बात की कि आपको अमृत का कोई भी पता नहीं है।

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