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*लोभ मोह मद माया फंध,*
*ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥*
*दादू यहु तन यों ही जाइ,*
*राम विमुख मर गये विलाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अगर लोभ करना हो तो प्रेम भूल कर मत करना। अगर लोभ करना हो तो प्रेम की बात में ही मत पड़ना। इसीलिए तो कृपण आदमी कभी प्रेम नहीं करता; कर ही नहीं सकता। कृपणता का प्रेम से कोई संबंध नहीं है। लोभी धन इकट्ठा करता है। और प्रेम खतरनाक है उसके लिए। प्रेम से ज्यादा खतरनाक कुछ भी नहीं है।
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क्योंकि प्रेम का मतलब है--बांटो। इसलिए लोभी प्रेम की झंझट में कभी नहीं पड़ता, हालांकि वह भी सिद्धांत खोज लेता है। लोग बड़े कुशल हैं। वह कहता है, राग से मैं दूर ही रहता हूं। कृपण अपने को वीतराग समझता है। कृपण कहता है, क्या रखा है संबंधों में ? यह तो वह कहता है, लेकिन तिजोड़ी में रखता चला जाता है। धन ही उसका एकमात्र संबंध है।
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और जिसका धन से संबंध है उसका जीवन से कोई संबंध नहीं रह जाता। प्रेम तो जीवंत संबंध है। धन तो मृत वस्तु से संबंध है। धन से ज्यादा मरी हुई कोई चीज है ? रुपये से ज्यादा मुर्दा कोई चीज तुम दुनिया में खोज सकते हो ? पत्थर भी पड़ा-पड़ा बढ़ता है, पत्थर भी फैलता है।
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सारा अस्तित्व जीवंत है। लेकिन रुपया तुम बिलकुल मरा हुआ पाओगे। रुपये में कोई जीवन नहीं है। और जो आदमी रुपये को इकट्ठा करने में लग जाता है उसकी आत्मा भी मर जाती है। और प्रेम तो वहां खिलता है जहां आत्मा जीवंत होती है।

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