शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2023

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*दादू ब्रह्म जीव हरि आत्मा, खेलैं गोपी कान्ह ।*
*सकल निरन्तर भर रह्या, साक्षीभूत सुजान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जनक के पास सब था। देख लिया सब। तैयार ही खड़े थे जैसे, कि कोई जरा—सा इशारा कर दे, जाग जाएं। सब सपने व्यर्थ हो चुके थे। नींद टूटी—टूटी होने को थी। इसीलिए मैं कहता हूं अष्टावक्र को परम शिष्य मिला।
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जनक ने कहा. ‘मैं निर्दोष हूँ शांत हूं बोध हूं प्रकृति से परे हूं ! आश्चर्य ! अहो ! कि मैं इतने काल तक मोह के द्वारा बस ठगा गया हूं !’ उतरने लगी किरण। अहो निरंजन:। आश्चर्य ! सुना अष्टावक्र को कि तू निरंजन है, निर्दोष है, सुनते ही पहुंच गई किरण प्राणों की आखिरी गहराई तक, जैसे सूई चुभ जाए सीधी।
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अहो निरंजन: शांतो बोधोग्हं प्रकृते पर:।
आश्चर्य, क्या कहते हैं आप ? मैं निर्दोष हूं ! शांत हूं ! बोध हूं ! प्रकृति से परे हूं ! आश्चर्य कि इतने काल तक मैं मोह के द्वारा बस ठगा गया हूं।
एतावतमहं काल मोहेनैव विडंबित:
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चौंक गए जनक। जो सुना, वह कभी सुना नहीं था। अष्टावक्र में जो देखा, वह कभी देखा नहीं था। न कानों सुना, न आंखों देखा—ऐसा अपूर्व प्रगट हुआ। अष्टावक्र ज्योतिर्मय हो उठे ! उनकी आभा, उनकी आभा के मंडल में जनक चकित हो गए. ‘अहो, बोध हुआ कि मैं निरंजन हूं !’ एकदम भरोसा नहीं आता, विश्वास नहीं आता।
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सत्य इतना अविश्वसनीय है, क्योंकि हमने असत्य पर इतने लंबे जन्मों तक विश्वास किया है। सोचो, अंधे की अचानक आंख खुल जाए तो क्या अंधा विश्वास कर सकेगा कि प्रकाश है, रंग हैं, ये हजार—हजार रंग, ये इंद्रधनुष, ये फूल, ये वृक्ष, ये चांद—तारे ? एकदम से अंधे की आंख खुल जाए तो वह कहेगा, अहो, आश्चर्य है ! मैं तो सोच भी न सकता था कि यह है। और यह है। और मैंने तो इसका कभी सपना भी न देखा था।
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जनक को भी एक धक्का लगा है, एक चौंक पैदा हुई ! अचंभे से भर गए हैं ! कहने लगे, ‘अहो, मैं निर्दोष !’ सदा से अपने को दोषी जाना और सदा से धर्मगुरुओं ने यही कहा कि तुम पापी हो ! और सदा से पंडित—पुरोहितों ने यही समझाया कि धोओ अपने कर्मों के पाप। किसी ने भी यह न कहा कि तुम निर्दोष हो, कि तुम्हारी निर्दोषता ऐसी है कि उसके खंडित होने का कोई उपाय नहीं, कि तुम लाख पाप करो तो भी पापी तुम नहीं हो सकते हो।
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तुम्हारे सब किए गए पाप, देखे गए सपने हैं—जागते ही खो जाते हैं। न पुण्य तुम्हारा है, न पाप तुम्हारा है; क्योंकि कर्म तुम्हारा नहीं, कृत्य तुम्हारे नहीं; क्योंकि कर्ता तुम नहीं हों—तुम केवल द्रष्टा, साक्षी हो।
ओशो: अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–1) प्रवचन–7

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