बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

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*भोर भयो पछतावन लागे,*
*मांहीं महल कुछ नांहीं ।*
*जब जाइ काल काया कर लागे,*
*तब सोधे घर मांहीं ॥*
*जाग जतन कर राखो सोई,*
*तब तन तत्त न जाई ।*
*चेतन पहरे चेतत नांहीं,*
*कहि दादू समझाईं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पक्षी गाते हैं, बुद्धपुरुषों के कंठ से भी एक गीत पैदा होता है। लेकिन पक्षी बेहोशी में गाते हैं। बुद्धपुरुष का गीत परिपूर्ण होश का है, जागरण का है। पक्षी गाते हैं, उन्हें पता नहीं; क्यों गाते हैं ? पक्षी गाते हैं, उन्हें यह भी पता नहीं कि वे गाते हैं। बुद्धपुरुष गाते हैं तो उन्हें पता हैः क्यों गाते हैं ? उन्हें पता है कि वे गाते हैं।
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तो एक तो गीत सोए हुए प्राणों से पैदा हो रहा है और एक गीत जाग्रत पैदा हो रहा है। गुणधर्म में तो कोई फर्क नहीं है, क्योंकि गीत एक ही स्रोत से आ रहा है वह जो चैतन्य की गंगोत्री है वहीं से आ रहा है। लेकिन अभिव्यक्ति में फर्क है।
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जैसे तुम कभी रात सो गए और तुमने नींद में गुनगुनाया, तुमने एक गीत की कड़ी गाई, या प्रार्थना का एक स्वर उठाया..यह हो सकता है कि उसी समय मंदिर में जाग कर कोई उसी कड़ी को दोहराता हो। उन कड़ियों में कोई भेद न होगा। जहां से आती हैं वहां से भी कोई भेद नहीं है। तुम नींद में गुनगुनाओ या जाग कर..तुम ही गुनगुनाते हो।
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लेकिन अभिव्यक्ति में फर्क है। तुम नींद में गुनगुना रहे हो, तुम्हें पता नहीं तुमने क्या गुनगुनाया। तुम्हें यही पता नहीं कि तुमने गुनगुनाया। सुबह उठ कर तुम भूल ही जाओगे। कोई दूसरा तुम्हें याद दिलाएगा तो भी तुम मानोगे न कि यह कैसे हो सकता है कि मैं नींद में गुनगुनाऊं; नहीं, ऐसी ही अफवाह उड़ा दी होगी किसी ने। लेकिन जिसने जाग कर गुनगुनाया…!
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ऐसा समझो कि तुम्हें इस बगीचे में लाया गया। तुम शराब पीए बेहोश थे। फूलों की गंध तुम्हारे नासापुटों को छुएगी। वृक्षों की हरियाली तुम्हारी आंखों को स्पर्श देगी। बगीचे की ठंडक तुम्हारे रोएं-रोएं को शीतल करेगी। पक्षियों के गीत भी तुम्हारे कानों से टकराएंगे। लेकिन तुम्हें कुछ भी पता न होगा, तुम शराब पीए बेहोश हो। फिर दूसरे दिन तुम होश में आए, शराब नहीं पीए थे, भीतर जलता हुआ होश का दिया था..वे ही पक्षी थे, वे ही वृक्ष थे, वही फूल थे, वही आकाश था; लेकिन अब बात ही और है।
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बुद्धपुरुषों से जो प्रकट होता है वह वही है जो झरनों और पहाड़ों से प्रकट हो रहा है। लेकिन बुद्धपुरुषों में झरने और पहाड़ जाग गए हैं। बुद्धपुरुषों में पक्षी और वृक्ष होश से भर गए हैं। पक्षी और वृक्षों में बुद्ध सोए हुए हैं। चट्टान से चट्टान में भी भविष्य का कोई बुद्ध सोया है।
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परम बुद्धत्व में भी अतीत की कोई चट्टान जागी है। इसलिए चट्टान पर भी सम्हाल कर पैर रखना, पवित्र भूमि है। क्षमा मांगना जब पैर रखो। और चट्टान जब तुम्हें पार करने का मार्ग बने, सीढ़ी बने तो धन्यवाद देना, क्योंकि कोई बुद्धपुरुष सोया है। चट्टानों में और बुद्धपुरुषों में फासला है..फासला गुण का नहीं है, फासला केवल सोने और जागने का है।

ओशो

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