शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

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*दादू ऊरा पूरा कर लिया, खारा मीठा होइ ।*
*फूटा सारा कर लिया, साधु विवेकी सोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जिम विस भक्खइ विसहि पलुत्ता।
तिम भव भुज्जइ भवहि ण जुत्ता ॥
"जिस प्रकार विष का शोधक विष खाकर भी मरता नहीं है, उसी प्रकार योगी सांसारिक विषयों को भोगता हुआ भी संसार के बंधनों में नहीं पड़ता।'
सुनो यह घोषणा। यह भगोड़ों की घोषणा नहीं है। यह संन्यास का पलायनवादी रूप नहीं है। यह संन्यास की आत्यंतिक रूप से विधायक धारणा है। 
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तिलोपा कहते हैं कि जो विष का जानकार है वह विष को भी औषधि में बदल देता है। और जब तक तुम विष को औषधि में न बदल सको तब तक समझना तुम्हारे भीतर ज्ञान की किरण ही पैदा न हुई । तब तक समझना तुम्हारी बुद्धिमत्ता न जागी। तब तक तुम बुद्धू हो, तुम बुद्ध न हुए। जिस दिन जीवन के जहर को भी अमृतमय बनाने की कला आ जाती है, जो उस रसायन को जान लेता है वही योगी है।
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योगी भगोड़ा नहीं हो सकता। भगोड़ा तो कायर होता है। भगोड़े का अर्थ तो यह है कि जहर देखकर जहर को छोड़कर भाग खड़े हुए। यह तो चुनौती का अस्वीकार हो गया। यह तो पीठ दिखा दी। यह तो जीवन के रण-क्षेत्र से कायर की तरह पूंछ दबाकर भाग गए। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं कि तू सहज-योगी होना, छोड़ना मत, भागना मत। 
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जिंदगी में जो भी परमात्मा ने दिया है वह सभी रूपांतरित हो सकता है अमृत में। ठीक दुकान पर बैठे-बैठे मंदिर का आगमन हो सकता है। और मजा तो तभी है जब तुम्हें मंदिर न जाना पड़े और मंदिर तुम्हारे पास आए। रस तो तभी है जब तुम्हें हिमालय न जाना पड़े, तुम्हारे भीतर हिमालय उमगे; तुम्हारी अंतरात्मा हिमालय जैसी शांत और हरी-भरी हो जाए; तुम्हारी अंतरात्मा में झरने फूटें। 
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हिमालय पर जाकर बैठ गए, जरूर थोड़ी शांति मालूम पड़ेगी, क्योंकि बाजार का शोरगुल न होगा। लेकिन वह शांति तुम्हारी नहीं है, याद रखना। एक क्षण को भी भूलना मत। वह शांति हिमालय की है। ऐसे ही समझना कि दर्पण के सामने एक सुंदर व्यक्ति आकर खड़ा हो गया और दर्पण सोचने लगे कि मैं सुंदर हो गया !...सुंदर व्यक्ति के हटते ही दर्पण वही का वही रह जाएगा, जैसा था, टेढ़ा-मेढ़ा, गंदा-कुरूप। सुंदर व्यक्ति की छाया बन गई थी। छाया पर भरोसा मत कर लेना। छाया माया है। छाया आत्मा नहीं है।
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तुम हिमालय गए, एकांत में बैठ गए, हिमालय का सन्नाटा--कुंआरा सन्नाटा ! शांत हवाएं, धूल रहित ! हरे वृक्ष, उनकी आकाश को छूने की उमंग! हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों पर सूरज से बरसता हुआ सोना, कि पूर्णिमा की रात में चारों तरफ चांदनी का फैलाव ! तुम अभिभूत हो गए। तुम्हें लगा, लगा ध्यान। तुमने समझा कि बनी समाधि, पकी समाधि। और जब उतरकर आओगे वापस मैदान में, सब खो जाएगा। कुछ भी हाथ न लगेगा। छाया थी। छाया ने भ्रम में डाल दिया।
~ ओशो...!!!

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