शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

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*ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।*
*दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*श्रद्धा की अनिवार्य सीढ़ी : संदेह*
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एक महावीर-जयंती पर मैं बंबई में बोल रहा था। मुझसे पहले एक जैन मुनि, चित्रभानु बोले। उन्होंने कहा कि महावीर महाक्षमावान थे। जिन्होंने उन्हें सताया, उन्हें भी उन्होंने क्षमा कर दिया। जिन्होंने उनके कान में कीले ठोंकी , उनको भी उन्होंने क्षमा कर दिया।
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तालियां पिट गईं। जैनियों की ही भीड़ थी। मैं बहुत चौंका। मैं उनके बाद बोलने खड़ा हुआ तो मैंने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। ये जो जैन मुनि अभी बोल रहे थे, इनको महावीर का कुछ भी पता नहीं है। ये कैसे मुनि हैं ! इन्हें कोई अनुभूति नहीं है। क्योंकि महावीर को क्षमावान कहने का अर्थ यह है कि पहले वे नाराज हुए थे। जो नाराज हो, वही क्षमा करे। मैं महावीर को क्षमावान नहीं कह सकता। उन्होंने कभी किसी को क्षमा नहीं किया, क्योंकि वे कभी किसी पर नाराज नहीं हुए। तुम अपनी धारणाएं उन पर थोप रहे हो।
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मुनि तो आगबबूला हो गए। उनकी प्रतिष्ठा थी। वे तो एकदम मुझसे माइक छीन लिए। मैंने कहा कि ये सज्जन हैं, जो शायद क्षमा करें, शायद क्षमा न भी करें। यह क्रोधित व्यक्ति नाराज होगा तो क्षमा करेगा। ये अपने को ही महावीर पर आरोपित कर रहे हैं। इनको महावीर का कुछ भी पता नहीं है। महावीर ने न तो कभी नाराजगी की, न कभी क्षमा किया। इसलिए मैं महावीर को क्षमावान नहीं कह सकता। 
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मैं महावीर को करुणावान भी नहीं कह सकता, क्योंकि जो क्रूर ही नहीं है वह करुणावान कैसे होगा ? हमारे कोई शब्द महावीर जैसे व्यक्तियों के काम के नहीं हैं। हमारे सब शब्दों में द्वंद्व है--और महावीर निर्द्वंद्व हैं। हमारे सब शब्दों में द्वैत है, दुई है--और महावीर द्वैत के पार हैं, अद्वैत में हैं। उन पर हमारे कोई शब्द लागू नहीं होते। हमारे सब शब्द छोटे पड़ जाते हैं, ओछे पड़ जाते हैं। हमें सम्भाल कर बात बोलनी चाहिए।
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मगर जैन मुनि जो मुझ पर नाराज हुए, वह नाराजगी अब भी चलती है। वर्षों हो गए इस बात को हुए। यह पहले वर्ष हमारा साथ हुआ। दूसरे वर्ष कुछ युवक मुझमें उत्सुक हो गए। उन्होंने कहा: बात जमी। उन्होंने फिर मुझे निमंत्रण दे दिया। मुनि मुझसे पहले बोले थे पहली बार, उन्होंने शर्त रखी कि इस बार वे मेरे से पीछे बोलेंगे, क्योंकि मैं खंडन करता हूं। मैंने कहा कि मुझे क्या फर्क पड़ता है कि आप कब बोलते हैं ! मैं पहले बोलूंगा। 
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पहले बोले तो हालत और खराब हो गई, क्योंकि पहले जो मैं बोला, उससे वे एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। उन्हें फिर कुछ सूझा ही नहीं कि अब क्या करें ! क्योंकि मैंने जो बातें कहीं, वे उनकी समझ के बिलकुल पार थीं। सो वे जो बोले, लोग ताली पीटने लगे, लोग हंसने लगे। जैन ! जिनसे कि वे आशा नहीं करते थे कि ऐसा व्यवहार करेंगे। क्योंकि मैंने एक बात कही। मैंने कहा कि जब वर्धमान की मृत्यु हो गई तो महावीर का जन्म हुआ।
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वर्धमान--महावीर का पुराना नाम, मां-बाप का दिया हुआ नाम। महावीर उनका नाम नहीं था, वर्धमान नाम था। वर्धमान नाम दिया गया था उनको, क्योंकि जब वे पैदा हुए, उनके घर में सब चीजों में वृद्धि हुई। धन बढ़ा, यश बढ़ा, साम्राज्य बढ़ा। तो मां-बाप ने उनको नाम दिया--वर्धमान। होना भी चाहिए। यह कहानी प्रीतिकर है। महावीर जैसा व्यक्ति घर में जन्मे तो क्यों न हर चीज बढ़े ! फूल ज्यादा खिले होंगे उस वर्ष। बगिया में गंध ज्यादा उड़ी होगी उस वर्ष। वसंत जल्दी आ गया होगा और देर तक ठहरा होगा। यह बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसा होना ही चाहिए; हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन होना जरूर चाहिए। यह कहानी प्रीतिकर है कि सब चीजें बढ़ीं, खूब बढ़ीं। तो उनको वर्धमान नाम दिया।
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लेकिन मैंने जब कहा कि वर्धमान की मृत्यु पर महावीर की शुरुआत है। तो वे फिर बौखला गए। उनसे न रहा गया। वे बीच में ही खड़े हो गए कि आपको कुछ जैन धर्म का पता नहीं है। महावीर और वर्धमान एक ही व्यक्ति के नाम हैं ! तो जनता भी हंसी। मैंने कहा कि अब मैं क्या कहूं, लोग ही आपको जवाब दे रहे हैं ! यह तो मैंने भी नहीं कहा कि ये दो व्यक्तियों के नाम हैं। और आप इतनी कुंठित बुद्धि के होंगे, यह मैं समझा नहीं।
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मगर वे तो क्रोध से भनभना रहे थे, तो क्रोध में तो आदमी की बुद्धि कुंठित हो जाती है। वे तो कंप रहे थे एकदम। वे तो समझे कि मैं यह कह रहा हूं कि ये दो व्यक्ति हैं। मैं तो सिर्फ एक प्रतीक कह रहा था। मैं तो यह कह रहा था कि वर्धमान नाम का जो व्यक्ति९त०व था, वह जब समाप्त हो गया, तो एक नये व्यक्ति का जन्म हुआ--जो बिलकुल अनूठा है, अद्वितीय है, जो पुरानी शृंखला से मुक्त है। 
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न किसी का बेटा है, न किसी का भाई है, न किसी का पति है, न किसी का पिता है। वर्धमान तो किसी का बेटा था, किसी का भाई था, किसी का पति था, किसी का पिता था। यह तो महावीर, अब किसी का कोई नहीं है! वर्धमान तो शरीर को अपना मानता था, मन को अपना मानता था; यह महावीर न तो जानता है कि शरीर हूं मैं, न मन हूं मैं; यह तो पहचानता है कि मैं सिर्फ साक्षी-भाव हूं। यह तो और ही बात हो गई। इतनी सी बात कहने के लिए मैंने कहा था कि वर्धमान तो मर गया, कब का मर गया, तब महावीर का जन्म हुआ।
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मगर वे तो भन्ना गए। तीसरे साल तो उन्होंने कह दिया कि या तो मैं बोलूं या वे बोलें, दोनों साथ नहीं बोल सकते। आगे भी बोल कर देख लिया, पीछे भी बोल कर देख लिया। मैं पूना था और महावीर जयंती पर बोलने मुझे बंबई जाना था। जैसे ही मैं यहां से कार से निकल रहा था, खबर आई कि मुझे कार से अकेला न भेजा जाए, क्योंकि वे मुनि इतने ज्यादा क्रुद्ध हैं कि हो सकता है वे रास्ते में कोई बाधा खड़ी करें, सिर्फ इसलिए ताकि मैं समय पर बंबई न पहुंच सकूं, या मेरे शरीर को कोई नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाए।
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अब ये जैन मुनि ! ये अहिंसा के भक्त हैं ! ये अहिंसा के प्रचारक हैं ! ये महावीर का संदेश सारी दुनिया को देने जा रहे हैं ! इस तरह के लोगों ने गलत-सलत बातें समझा रखी हैं।
ओशो; रहिमन धागा प्रेम का-- प्रवचन-04

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