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*अति आतुर ये खोजत डोलैं,*
*बाह्य परी वियोगिनी बोलैं ॥३॥*
*सब हम नारी दादू दीन,*
*दे सुहाग काहू संग लीन ॥४॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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हम सब नारी एक भरतार,
सब कोई तन करें श्रृंगार ॥टेक॥
घर घर अपने सेज संवारें,
कँत पियारे पॅंथ निहारैं
आरत अपने पीव को धावैं,
मिलै नाह१ कब अँग लगावैं ॥२॥
अति आतुर ये खोजत डोलैं,
बाह्य परी वियोगिनी बोलैं ॥३॥
सब हम नारी दादू दीन,
दे सुहाग काहू संग लीन ॥४॥
(श्री दादूदयालवाणी पद~६२)
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भक्त तो कहते हैं कि सभी हम नारी हैं, परमात्मा को अगर ध्यान में रखें। परमात्मा ही एकमात्र पुरुष है; शेष तो सब नारियां हैं।
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नारी का अर्थ होता है, जिनके भीतर, परमात्मा के बिना रहने की सामर्थ्य नहीं है। वृक्ष पर बेल चढ़ती है। बेल वृक्ष के बिना नहीं रह सकती। वृक्ष बेल के बिना रह सकता है। इसलिए बेल नारी है। वृक्ष पुरुष है। हम परमात्मा के बिना नहीं रह सकते; परमात्मा हमारे बिना रह सकता है। इसलिए परमात्मा पुरुष है और सारा जगत् नारी है।
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वह जो कृष्ण का रास तुमने देखा हो या सुना हो, वह जो रास में नाचती हुई हजारों-हजारों सखियां और कृष्ण का बीच में बांसुरी बजाना, वह सारे जगत् का चित्र है; वह ब्रह्मांड का चित्र है। कृष्ण यानी पुरुष; एक; परमात्मा। और वे सारी सखियां यानी सारा संसार।
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मनुष्य अपने-आप में पूरा नहीं है–स्त्रैण। परमात्मा अपने-आप में पूरा है–पुरुष। मनुष्य निर्भर है, इसलिए स्त्रैण। मनुष्य को सहारा चाहिए–इसलिए स्त्रैण। पलटू कहते हैं~ वही मनुष्य सयाना है, होशियार है, बुद्धिमान है, जो प्राण-प्यारे के साथ जलने को तैयार है।
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जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनको तो पलटू गंवार कहते हैं। हम बुद्धिमान उनको कहते हैं, जो परमात्मा को छोड़कर संसार को पकड़ने में लगे हैं। पलटू उसे बुद्धिमान कहते हैं, जो सब छोड़ कर परमात्मा को पाने में लगता है; अपने को छोड़कर जो परमात्मा को पाने में लगता है; अपने को भी मिटा कर परमात्मा को खरीदने चलता है।
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“जरै पिया के साथ, सोई है नारी सयानी।’’
“सोई सती सराहिए. . .।’’ उसकी ही सराहना करो। उस भक्त की ही प्रशंसा के गीत गाओ। अब तो प्रेम की वैसी अपूर्व धारणा न रही। और उस प्रेम की अपूर्व धारणा के खो जाने के कारण, प्रार्थना भी खो गयी, भक्ति भी खो गयी।
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मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मुझसे एक दिन कह रही थी~ “सच पूछो तो बच्चों ने हमारा तलाक होते-होते रुकवा दिया।’ मैंने पूछा~ “वह कैसे ?’ तो मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा~ “तलाक के बाद बच्चों को पास रखने के लिए न मैं तैयार थी और न मुल्ला।’
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ऐसे ही संबंध रह गए हैं। औपचारिक हैं। व्यवस्थागत हैं। आर्थिक हैं, सामाजिक हैं। सुरक्षा के लिए हैं, सुविधा के लिए हैं। लेकिन आंतरिक ज्योति खो गयी है। हार्दिक नहीं हैं। आर्थिक हैं, सामाजिक हैं,, लेकिन धार्मिक नहीं हैं। और जब इस जगत् के सारे संबंध ही अधार्मिक हो जाते हैं तो उस परम संबंध की तरफ आंखें उठनी मुश्किल हो जाती हैं क्योंकि इन्हीं सीढ़ियों से तो चढ़ कर हम उसके मंदिर तक पहुंचते हैं।
ओशो

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