🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*जब समझ्या तब सुरझिया, गुरुमुख ज्ञान अलेख ।*
*ऊर्ध्व कमल में आरसी, फिर कर आपा देख ॥*
===============
*साभार ~@Subhash Jain*
.
आपकी पुस्तकें पढ़ने से ऊब आती है। ध्यान करने की इच्छा भी नहीं होती। और टेपबद्ध प्रवचन सुनने की इच्छा नहीं के बराबर है। आपके प्रवचन में भी मुझे पता चल जाता है कि आप ऐसा ही कहेंगे। फिर भी रूपांतरण नहीं होता, ऐसा क्यों ? और रूपांतरण नहीं हुआ है तो फिर पढ़ने, सुनने और ध्यान करने में ऊब क्यों अनुभव होती है ? और प्रभु, रोज—रोज एक ही बात दोहराने में क्या आपको ऊब नहीं आती ?
.
ऊब को समझना चाहिए। ऊब क्या है ? ऊब के बहुत कारण हो सकते हैं। पहला कारण : जो तुम्हारी समझ में न आये, और उसे बार—बार सुनना पड़े, तो ऊब स्वाभाविक है। बार—बार सुनने से ऐसा समझ में भी आने लगे कि समझ में आ गया, और समझ में न आये, क्योंकि समझ में आ जाना कि समझ में आ गया—समझ में आ जाना नहीं है। बार—बार सुनने से ऐसा लगने लगता है, परिचित शब्द हैं, परिचित बात है। मेरी शब्दावली कोई बहुत बड़ी तो नहीं है—मुश्किल से तीन—चार सौ शब्द। मैं कोई पंडित तो हूं नहीं ! उन्हीं—उन्हीं शब्दों का बार—बार उपयोग करता हूं।
.
तो बार—बार सुनने से तुम्हें समझ में आने लगता है कि समझ में आ गया। और समझ में कुछ भी नहीं आया। क्योंकि समझ में आ जाये तो रूपांतरण हो जाये। समझ तो क्रांति है। तो जब तक क्रांति न हो, तब तक समझना अभी समझ में नहीं आया। और तुम्हें जब तक समझ में न आये, तब तक मुझे दोहराना पड़ेगा। तुम्हें समझ में न आये और मैं आगे का पाठ करने लगू तो बात गड़बड़ हो जायेगी। तब तो तुम कभी भी न समझ पाओगे। अभी तो पहला पाठ ही समझ में नहीं आया।
.
तुमने महाभारत की कथा सुनी होगी। पहला पाठ द्रोण ने पढ़ाया है। अर्जुन पढ़ कर आ गया, दुर्योधन पढ़ कर आ गया, सब विद्यार्थी पढ़ कर आ गये। युधिष्ठिर ने कहा कि अभी मैं नहीं तैयार कर पाया, कल करूंगा। कल भी बीत गया, परसों भी बीत गया, दिन पर दिन बीतने लगे। द्रोण तो बहुत हैरान हुए, क्योंकि सोचा था युधिष्ठिर सबसे प्रतिभाशाली होगा। वह शांत था, सौम्य था, विनम्र था। सब विद्यार्थी आगे बढ़ने लगे। कोई दसवें पाठ पर पहुंच गया, कोई बारहवें पाठ पर पहुंच गया—यह पहले पर अटका है। यह तो बड़ी गड़बड़ हो गयी।
.
एक सप्ताह बीतते —बीतते तो गुरु का धैर्य भी टूट गया। और उन्होंने पूछा कि मामला क्या है ? पहले पाठ में ऐसी अड़चन क्या है ? युधिष्ठिर ने कहा, जैसा और करके आये हैं, अगर वैसा ही मुझसे भी करने को कहते हो तो कोई अड़चन नहीं है।
.
पहला पाठ था, उसमें वचन था : सत्य बोलो। सब याद करके आ गये कि पहला पाठ, सत्य बोलो। युधिष्ठिर ने कहा, लेकिन तब से मैं सत्य बोलने की कोशिश कर रहा हूं अभी तक सध नहीं पाया, अभी झूठ हो जाता है। तो जब तक सत्य बोलना न आ जाये, दूसरे पाठ पर हटना कैसे ?
.
तब शायद द्रोण को लगा होगा कि कैसी भ्रांत बात उन्होंने सोच ली थी इसके लिए! सब बच्चे याद करके आ गये थे—सत्य बोलो—जैसा तोता याद कर लेता है। तोते को याद करवा दो, सत्य बोलो, सत्य बोलो, तो दोहराने लगेगा। लेकिन सत्य बोलो, यह दोहराने से सत्य बोलना थोड़े ही शुरू होता है ! उससे तो मतलब ही न था किसी को।
.
किसी ने पाठ को उस गहराई से तो लिया ही न था। युधिष्ठिर ने कहा कि प्रभु, अगर पूरे जीवन में यह एक पाठ भी आ जायेगा तो धन्य हो गया ! अब दूसरे पाठ तक जाने की जरूरत भी क्या है ? सत्य बोलो—बात हो गयी। अब तो मुझे इस पहले पाठ में रम जाने दें, रसमग्न हो जाने दें।
.
तुम सुनते हो —वही शब्द, वही सत्य की ओर इशारे। तुम्हें बार—बार सुन कर लगता है समझ में आ गया। युधिष्ठिर बनो। समझ में तभी मानना जब जीवन में आ जाये। और जब तक तुम्हारे जीवन में न आ जाये, अगर मैं दूसरे पाठों पर बढ़ जाऊं, तो तुमसे मेरा संबंध छूट जायेगा।
.
और फिर एक और अड़चन की बात है। जो मैं तुम्हें सिखा रहा हूं उसमें दूसरा पाठ ही नहीं है, बस एक ही पाठ है। इस पुस्तक में कुल एक ही पाठ है। तुम मुझसे जिस ढंग से चाहो कहलवा लो। कभी अष्टावक्र के बहाने, कभी महावीर के, कभी बुद्ध के, कभी पतंजलि के, कबीर के, मुहम्मद के, ईसा के—तुम जिस ढंग से चाहो मुझसे कहलवा लो। मैं तुमसे वही कहूंगा। पाठ एक है। थोड़े —बहुत यहां —वहां फर्क हो जायेंगे तुम्हें समझाने के, लेकिन जो मैं समझा रहा हूं वह एक है।
.
तुम चाहो किसी भी उंगली से कहो, मैं जो बताऊंगा वह चांद एक है। उंगलियां पाच हैं मेरे पास, दस हैं—कभी इस हाथ से बता दूंगा, कभी इस हाथ से बता दूंगा; कभी एक उंगली से, कभी दूसरी उंगली से; कभी मुट्ठी बांध कर बता दूंगा—लेकिन चांद तो एक है। उस चांद की तरफ ले जाने की बात भी अनेक नहीं हो सकती।
.
तो जो समझ से भरे हैं, जो थोड़े समझपूर्वक जी रहे हैं, वे तो आह्रादित होंगे कि मैं वही—वही बात बहुत—बहुत रूपों में उनसे कहे जा रहा हूं। जगह—जगह से चोट कर रहा हूं। लेकिन कील तो एक ही ठोकनी है। नये—नये बहाने खोज रहा हूं, लेकिन कील तो एक ही ठोकनी है। लेकिन जो केवल बुद्धि से सुनेंगे और सुन कर समझ लेंगे समझ में आ गया—क्योंकि सुन तो लिये शब्द, जान तो लिये शब्द—उनको अड़चन होगी, वे ऊबने लगेंगे। तो एक तो ऊब इसलिए पैदा हो जाती है।
.
दूसरी ऊब का कारण और भी है। जब तुम मेरे पास पहली दफा सुनने आते हो तो अक्सर जो मैं कह रहा हूं उसमें तुम्हारी उत्सुकता कम होती है, जिस ढंग से कह रहा हूं उसमें ज्यादा होती है। लोग बाहर जा कर कहते हैं खूब कहा ! क्या कहा, उससे मतलब नहीं है। कहने के ढंग से मतलब है। अब ढंग तो मेरा, मेरा ही होगा। रोज—रोज तुम सुनोगे, धीरे — धीरे तुम्हें लगने लगेगा कि यह शैली तो पुरानी पड़ गयी। यह भी स्वाभाविक है। अगर तुम्हारा शैली में रस था तो आज नहीं कल ऊब पैदा हो जायेगी।
.
फिर बहुत लोग हैं, जो सिर्फ केवल मैं जो कभी छोटी—मोटी कहानियां बीच में कह देता हूं उन्हीं को सुनने आते हैं। मेरे पास पत्र तक लिख कर भेज देते हैं कि आपने दो—तीन दिन से मुल्ला नसरुद्दीन को याद नहीं किया ? मैं महावीर पर बोल रहा हूं, वे मुल्ला नसरुद्दीन को सुन रहे हैं। मैं मुहम्मद पर बोल रहा हूं वे मुल्ला नसरुद्दीन को सुन रहे हैं। मैं मूसा पर बोल रहा हूं वे मुल्ला नसरुद्दीन को सुन रहे हैं। मैं मनु पर बोल रहा हूं, वे मुल्ला नसरुद्दीन को सुन रहे हैं।
.
यह तो ऐसे हुआ कि मैंने भोजन तुम्हारे लिए सजाया और तुम चटनी—चटनी खाते रहे। चटनी स्वादिष्ट है, माना; लेकिन चटनी से पुष्टि न मिलेगी। ठीक था, रोटी के साथ लगा कर खा लेते। इसीलिए चटनी रखी थी कि रोटी तुम्हारे गले के नीचे उतर जाये। चटनी तो बहाना थी, रोटी को गले के नीचे ले जाना था। बिना चटनी के चली जाती तो— अच्छा, नहीं जाती तो चटनी का उपयोग कर लेते। तुम रोटी भूल ही गये, तुम चटनी ही चटनी मांगने लगे।
.
तो धीरे— धीरे ऐसा आदमी भी ऊब जायेगा। क्योंकि वह देखेगा यह आदमी तो रोटी खिलाने पर जोर दे रहा है। तुम चटनी के लिए आये, मेरा जोर रोटी पर है। चटनी का उपयोग भी करता हूं तो सिर्फ रोटी कैसे तुम्हारे गले के भीतर उतर जाये। तुम्हारे आने के कारण तुम जानो; मेरा काम मैं जानता हूं कि तुम्हारे गले के नीचे कोई सत्य उतारना है। बाकी सब आयोजन है सत्य को उतारने का। अगर तुम रूखा—सूखा उतारने को राजी हों—सुविधा, सरलता से हो जायेगा। अन्यथा पकवान बनायेंगे, बहाना खोजेंगे; लेकिन डालेंगे तो वही जो डालना है। तो उससे भी ऊब पैदा हो जाती है।
.
सदियों से सदगुरुओं ने प्रयोग किया है ऊब का। झेन आश्रम में जापान में सारी व्यवस्था बोरडम की है, ऊब की है। तीन बजे रात उठ आना पड़ेगा, नियम से, घड़ी के काटे की तरह। स्नान करना होगा। बंधे हुए मिनिट मिले हुए हैं। चाय मिल जायेगी—वही चाय जो तुम बीस वर्ष से पी रहे हो, उसमें रत्ती भर फर्क नहीं होगा। फिर ध्यान के लिए बैठ जाना है —वही ध्यान जो तुम वर्षों से कर रहे हो, वही आसन।
.
साधुओं के सिर घोंट देते हैं ताकि उनके चेहरों में ज्यादा भेद न रह जाये। घुटे सिर करीब—करीब एक—से मालूम होने लगते हैं—खयाल किया तुमने ? अधिकतर चेहरे का फर्क बालों से है। सिर घोंट डालो सबके, तुम्हें अपने मित्र भी पहचानने मुश्किल हो जायेंगे। जैसे मिलिट्री में चले जाओ तो एक—सी वर्दी—ऐसी एक—सी वर्दी साधुओं की।
.
देखते हैं, मैंने गेरुआ पहना दिया है ! उससे व्यक्तित्व क्षीण होता है। तो बौद्ध भिक्षु एक—सा वस्त्र पहनता है, सिर घुटे होते, एक—से कृत्य करता है, एक—सी चाल चलता है। वही रोज। फिर ध्यान चल कर करना है, फिर बैठ कर करना है, फिर चल कर करना है। दिन भर ध्यान...! फिर वही गुरु, फिर वही प्रश्न, फिर वही उत्तर, फिर वही प्रवचन, फिर वही बुद्ध के सूत्र, फिर रात, फिर ठीक समय पर सो जाना है। वही भोजन रोज !
.
तुम चकित होओगे कि झेन आश्रमों में उन्होंने वृक्ष तक हटा दिये हैं। क्योंकि वृक्षों में रूपांतरण होता रहता है। कभी पत्ते आते, कभी झर जाते; कभी फूल खिलते, कभी नहीं खिलते। मौसम के साथ बदलाहट होती है। तो इतनी बदलाहट भी पसंद नहीं की। झेन आश्रमों में उन्होंने रेत और चट्टान के बगीचे बनाये हैं। उनके ध्यान—मंदिर के पास जो बगीचा होता है, रॉक गार्डन, वह पत्थर और चट्टान का बना होता है, और रेत। उसमें कभी कोई बदलाहट नहीं होती है। वह वैसा का वैसा प्रतिदिन।
.
तुम फिर आये, फिर आये—वही का वही, वही का वही! क्या प्रयोजन है यह? इसके पीछे कारण है। जब तुम वही—वही सुनते, वही—वही करते, वही—वही चारों तरफ बना रहता तो धीरे— धीरे तुम्हारी नये की जो आकांक्षा है बचकानी, वह विदा हो जाती है। तुम राजी हो जाते हो। तो मन का कुतूहल मर जाता है और कुछ उत्तेजना खोजने की आदत खो जाती है।
.
ऊब से गुजरने के बाद एक ऐसी घड़ी आती है जहां शाति उपलब्ध होती है। नये का खोजी कभी शांत नहीं हो सकता। नये का खोजी तो हमेशा झंझट में रहेगा। क्योंकि हर चीज से ऊब पैदा हो जायेगी। तुम देखते नहीं, एक मकान में रह लिये, जब तक नया था, दो —चार दिन ठीक, फिर पंचायत शुरू। फिर यह कि कोई दूसरा मकान बना लें, कि दूसरा खरीद लें। एक कपडा पहन लिया, अब फिर दूसरा बना लें।
.
स्त्रियां, देखते हो साड़ियों पर साड़िया रखे रहती हैं। घंटों लग जाते हैं उन्हें, पति हॉर्न बजा रहा है नीचे। ट्रेन पकड़नी, कि किसी जलसे में जाना, कि शादी हुई जा रही होगी और ये अभी यहीं घर से नहीं निकले हैं और पत्नी अभी यही नहीं तय कर पा रही है... एक साड़ी निकालती, दूसरी निकालती। साड़ी का इतना मोह ! नये का, बदलाहट का ! जो साड़ी एक दफा पहन ली, फिर रस नहीं आता। वह तो दिखा चुकी उस साड़ी में अपने रूप को, अब दूसरा रूप चाहिए। बाल के ढंग बदली। बाल की शैली बदलो। नये आभूषण पहनो। कुछ नया करो !
.
यही तो बचकाना आदमी है। यही आग्रह ले कर अगर तुम यहां भी आ गये कि मैं तुमसे रोज नयी बात कहूं तो तुम गलत जगह आ गये। मैं तो वही कहूंगा। मेरा स्वर तो एक है। सुनते—सुनते धीरे— धीरे तुम्हारे मन की यह चंचलता—नया हो—खो जायेगी। इसके खोने पर ही जो घटता है, वह शांति है। ऊब से गुजर जाने के बाद जो घटता है वह शाति है।
तो यह प्रवचन सिर्फ प्रवचन नहीं है, यह तो ध्यान का एक प्रयोग भी है। इसलिए तो रोज बोले जाता हूं।
.
कहने को इतना क्या हो सकता है ? करीब तीन साल से निरंतर रोज बोल रहा हूं। और तीस साल भी ऐसे ही बोलता रहूंगा, अगर बचा रहा। तो कहने को नया क्या हो सकता है ? तीन सौ साल भी बोलता रह सकता हूं। इससे कुछ अंतर ही नहीं पड़ता। यह तो ध्यान का एक प्रयोग है। और जो यहां बैठ कर मुझे सच में समझे हैं, वे अब इसकी फिक्र नहीं करते कि मेरे शब्द क्या हैं, मैं क्या कह रहा हूं —अब तो उनके लिए यहां बैठना एक ध्यान की वर्षा है।
.
फिर अगर तुम पहले से कुछ सुनने का आग्रह ले कर आये हो तो मुश्किल हो जाती है। तुम अगर मान कर चले हो कि ऐसी बात सुनने को मिलेगी, कि मनोरंजन होगा, कि ऐसा होगा, वैसा होगा—तो अड़चन हो जाती है। तुम अगर खाली—खाली आये हो कि जो होगा देखेंगे, तो अड़चन नहीं होती।
.
रूपांतरण जिसको चाहिए उसका हो कर रहेगा। लेकिन तुम्हें चाहिए ही न हो, तुम कुछ और चाहते होओ और यह रूपांतरण की बात केवल ऊपर—ऊपर से लपेट ली हो, यह केवल आभूषण मात्र हो, यह केवल बहाना हो कुछ छिपा लेने का—तो अड़चन हो जायेगी। फिर यह न हो सकेगा। फिर तुम वही सुनना चाहोगे जो तुम सुनना चाहते हो।
.
अभी ऐसा हुआ कि बुद्ध के सूत्रों पर जब मैं बोल रहा था, तो बुद्ध ने तो ऐसी बातें कही हैं जो कि पश्चिम से आने वाले यात्रियों को नहीं जंचती हैं। उसके पहले मैं हसीद फकीरों पर बोल रहा था। तो हसीद फकीर तो ऐसी बात कहते हैं जो पश्चिम के यात्री को जंच सकती हैं।
.
हसीद फकीर तो कहते हैं, परमात्मा का है यह संसार। सब राग—रंग उसका। पत्नी—बच्चे भी ठीक। भोग में ही प्रार्थना को जगाना है। भोग भी प्रार्थना का ही एक ढंग है। तो जम रहा था। फिर बुद्ध के वचन आये। और बुद्ध के वचनों में बुद्ध ने ऐसी बातें कही हैं कि स्त्री क्या है ? हड्डी, मांस, मज्जा का ढेर ! चमड़े का एक बैग, थैला, उसमें भरा है कूड़ा—कबाड़, गंदगी !
.
तो अनेक पश्चिमी मित्रों ने पत्र लिख कर भेजे कि बुद्ध की बात हमें जमती नहीं और बड़ी तिलमिलाती है। एक स्त्री ने तो लिख कर भेजा कि मैं छोड़ कर जा रही हूं। यह भी क्या बात है! मैं तो यहां इसलिए आयी थी कि मेरा प्रेम कैसे गहरा हो ? और यहां तो विराग की बातें हो रही हैं।
.
अब अगर तुम प्रेम गहरा करने आये हो तो निश्चित ही बुद्ध की बात बड़ी घबराहट की लगेगी। वह स्त्री तो नाराजगी में छोड़ कर चली भी गयी। यह तो पत्र लिख गयी कि यह बात मैं सुनने आयी नहीं हूं न मैं सुनना चाहती हूं। शरीर तो सुंदर है और ये कहते हैं, कूडा—कर्कट, गंदगी भरी है। बुद्ध के वचन सुनने हों और अगर तुम प्रेम की खोज में आये हो तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी।
.
तुम अगर कुछ सुनने आये हो, तुम्हारी कुछ मान्यता है, कुछ धारणा है, भीतर कोई रस है, उससे मेल न खायेगी बात, तो तुम ऊबोगे, परेशान होओगे। तुम्हें लगेगा व्यर्थ की बकवास चल रही है। लेकिन अगर तुम खाली आये हो, खोज की घड़ी आ गयी है, फल पक गया है, तो हवा का जरा—सा झोंका, और फल गिर जायेगा ! यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं तूफानी हवा बहा रहा हूं। अगर फल जरा भी पका है तो गिरने ही वाला है। अगर नहीं गिरता है तो कच्चा है और अभी गिरने का समय नहीं आया है।
.
पको ! जल्दी है भी नहीं। मत सुनो मेरी बात। जहां से ऊब आती हो, सुनना ही क्यों ? जाना क्यों ? छोड़ो ! जहां रस आता हो वहां जाओ। अगर जीवन में रस आता हो तो घबराओ मत। ऋषि—मुनियों की मत सुनो ! जाओ जीवन में उतरो ! नरक को भोगोगे तो ही नरक से छूटने की आकांक्षा पैदा होगी। दुख को जानोगे तो ही रूपांतरण का भाव उठेगा।
.
यह क्रांति सस्ती नहीं है। केवल उन्हीं को होती है जिनके स्वानुभव से ऐसी घड़ी आ जाती है, जहां उन्हें लगता है, बदलना है। नहीं कि किसी ने समझाया है, इसलिए बदलना है। जहां खुद ही के प्राण कहते हैं. बदलना है! अब बिना बदले न चलेगा। मेरी बातें तुम्हें नहीं बदल देंगी। तुम बदलने की स्थिति में आ गये तो मेरी बातें चिनगारी का काम करेंगी; तुम्हारे घर में आग लग जायेगी। यहां दूसरा वर्ग भी है सुनने वालों का, जो पक कर आया है। उसकी बात कुछ और हो जाती है।
.
एक मित्र ने लिखा है :
तेरे मिलन में एक नशा है गुलाबी
उसी को पी कर के चूर हूं मैं
अब खो गया हूं होश में
बेहोश होने का गरूर है मुझे।
एक दूसरे मित्र ने लिखा है.
हे प्रभु, अहोभाव के आंसुओ में डूबे मेरे प्रणाम स्वीकार करें और पाथेय व आशीष दें कि अचेतन में छिपी वासनाओं के बीज दग्ध हो जायें।
.
एक और मित्र ने लिखा है :
मैं अज्ञानी मूढ़ जनम से
इतना भेद न जाना
किसको मैं समझूं अपना
किसको समझूं बेगाना
कितना बेसुर था यह जीवन
डाल न पाया इसको लय में
इन अधरों पर हंसी नहीं थी
चमक नहीं थी इन आंखों में
लेकिन आज दरस प्रभु का पा
सब कुछ मैंने पाया !
निर्भर करता है—तुम्हारी चित्त—दशा पर निर्भर करता है। कुछ हैं जो ऊब जायेंगे, कुछ हैं जिन्हें प्रभु का दरस मिल जायेगा। कुछ हैं जो ऊब जायेंगे; कुछ हैं जिनके लिए मंदिर के द्वार खुल जायेंगे। सब तुम पर निर्भर है।
हरि ओंम तत्सत् !

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें