रविवार, 8 अक्टूबर 2023

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*दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि,*
*भावै जीव जगाइ ।*
*भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*हम दुख को इकट्ठा करते हैं*
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ईसाइयों का एक पुराना संप्रदाय था— ईसेन, जिसमें जीसस को दीक्षा मिली थी। ईसेन संप्रदाय का एक ध्यान—मार्ग था। और वह ध्यान—मार्ग यह था, कि तुम्हारे जीवन में अगर कभी भी कोई ऐसा क्षण घटा हो, जिस क्षण में विचार न रहे हों और तुम आनंद से भर गए हो, तो उसी क्षण को पुनः—पुन: स्मरण करके, उसी पर ध्यान करो। वह क्षण कोई भी रहा हो, उसी को बार—बार स्मरण करके उस पर ही ध्यान करो, क्योंकि उस क्षण में तुम अपनी श्रेष्ठतम ऊंचाई पर थे, जहां तक तुम अब तक जा सके हो। उसी को खोदो, उसी जगह मेहनत करो।
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सभी के जीवन में ऐसा कोई क्षण है। उसी की आशा में आदमी जीए चला जाता है कि शायद वह क्षण फिर आए। इसी भरोसे में जीए चला जाता है कि शायद वह क्षण और गहरा हो जाए। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसके जीवन में एकाध ऐसी स्मृति न हो। 
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कभी—कभी तो बहुत क्षुद्र कारणों में वैसी घटना घट जाती है। कभी तुम जा रहे हो, सूरज की किरणें तुम्हारे सिर पर पड़ रही हैं, अचानक तुम पाते हो कि तुम शांत हो। तुमने कुछ किया नहीं है, आकस्मिक, तुम उस जगह आ गए हो, जहां ट्यूनिंग हो गई।
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कभी बहुत साधारण सी घटनाओं में, कि तुम अपने बिस्तर पर पड़े हो, सुबह तुम्हारी आख खुली और अचानक तुम पहचान भी नहीं पाते हो कि तुम कौन हो? वह जो आदमी रात सोया था— उपद्रव, परेशानी, चिंता से भरा—वह नहीं है। 
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एक क्षण को तुम्हें यह भी समझ में नहीं आता कि तुम कहां हो ? तुम एकदम शांत हो। तुम इतने शांत हो कि खुद की पहचान भी भूल गई है। कभी किन्हीं भी कारणों में—उनका कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे भीतर जिंदगी चलती रहती है। कभी तुम्हारे अनजाने भी तुम्हारे भीतर के खंड—खंड इकट्ठे पड़ जाते हैं— संयोगवश। और तब कोई भी घड़ी बाहर मौजूद हो, तुम अचानक शांत हो जाते हो।
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इन स्मृतियों को संजोओ। फिर अगर तुम ध्यान कर रहे हो, तो ऐसी स्मृतियां बढ़ती चली जाएंगी। इन स्मृतियों को इकट्ठा करो। इनको हृदय के कोने में इकट्ठा करते जाओ, ताकि वे गहरी हो जाएं। और सारी स्मृतियां जितनी तुम्हारे जीवन में इस आनंद की घटी हों, जब तुमने संगीत जाना हो, उन सबको पास ले आओ, उनको एकाग्र कर दो एक बिंदु पर, ताकि उन सबके सहारे तुम आगे बढ़ सको। 
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अभी तुम्हें खंड—खंड मिलेंगे, तुम इन्हें इकट्ठे करते जाना। कभी ये खंड इकट्ठे होते जाएंगे, तो और बड़े खंडों के मिलने की संभावना बढ़ती जाएगी। ऐसे धीरे— धीरे एक—एक ईंट रख कर वह भवन खड़ा होगा, जिस दिन तुम उस महा—संगीत को सुन सकोगे, जिसे जीवन का संगीत कहा जा रहा है।
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लेकिन आदमी बहुत उलटा है। हम दुख की स्मृति संजोते हैं ! हम दुख में बड़ा रस लेते हैं। हम बार—बार दुख की चर्चा करते हैं। लोगों की बातें सुनो, वह अपना दुख रोते रहते हैं। सुख कोई भी नहीं हंसता, दुख लोग रोते हैं ! तो यह भाषा में शब्द ही नहीं कि फलां आदमी सुख हंस रहा है। भाषा में शब्द यह है कि फलां आदमी दुख रो रहा है। लोग अपना दुख एक—दूसरे को बताते रहते हैं, जैसे कि दुख कुछ बताने जैसा है, जैसे कि दुख कुछ बड़ी घटना है ! कोई आपने महान कार्य किया है कि आप दुखी हैं !
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लेकिन क्यों आदमी दुख की इतनी चर्चा करता है ? और उसे पता नहीं कि वह अपना आत्मघात कर रहा है। क्योंकि दुख की चर्चा से दुख घना हो जाता है। दुख की चर्चा से दुख इकट्ठा हो जाता है। दुख की चर्चा से दुख पर ध्यान बंट जाता है, ध्यान बंध जाता है। दुख की चर्चा से दुख घनीभूत होता है और नए दुखों को पैदा करता है। क्योंकि तुम जो संजोते हो, उसी को जानने में समर्थ होते चले जाते हो।
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सुख की कोई बात ही नहीं करता ! सुख को हम छोड़ कर ही चलते हैं ! वैसे सुख है भी कम। लेकिन उसके कम होने का एक कारण यह भी है कि हम सुख को इकट्ठा नहीं करते हैं। हम दुख को इकट्ठा करते हैं। *पर क्यों ? आदमी दुख की चर्चा क्यों करता है ?*
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उसके कारण हैं। क्योंकि जब भी कोई आदमी दुख की चर्चा करता है, तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि वह दूसरे की सहानुभूति चाहता है, दूसरे का प्रेम चाहता है। और सुख की चर्चा इसलिए नहीं करता कि सुख से कोई सहानुभूति नहीं करता। और सुखी आदमी से लोग ईर्ष्या करते हैं, प्रेम नहीं करते। इस भय से कि दूसरे ईर्ष्या करेंगे, इस भय से कि कोई सहानुभूति न देगा, आदमी दुख की चर्चा करता है। आदमी सहानुभूति का प्यासा है, प्रेम का प्यासा है।
ओशो ~ साधना--सूत्र#12

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