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*नैनहुँ बिन सूझे नहीं, भूला कतहूँ जाइ ।*
*दादू धन पावै नहीं, आया मूल गँवाइ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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कबीर कहते हैं, सहजै सहजै सब गया। कबीर ने न तो पत्नी छोड़ी, न बेटा छोड़ा, न धंधा छोड़ा। कबीर घर में रहे। कबीर परम गृहस्थ हैं और उनसे बड़ा संन्यासी खोजना कठिन है। पत्नी है, बेटा है, घर-द्वार है। कपड़ा बुनते हैं, बेचते हैं। जुलाहे का काम है। सब काम वैसे ही चलता है। उसमें कोई फर्क नहीं हुआ।
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लेकिन वे कहते हैंः सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। कुछ किया नहीं, ऐसे ही देखते रहे। धीरे-धीरे पाया कि देखते-देखते उलझनें खुलने लगीं। देखते-देखते क्योंकि जितनी दृष्टि साफ होती है, उतना ही मोह विलीन हो जाता है।
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मोह अंधापन है। आंख साफ होती है, मोह खो जाता है। मोह सपना है। साक्षी भाव जगता है; सपना टूट जाता है। सुबह तुम जागते हो; जागते ही सपना टूट जाता है। सपने को तोड़ना तो नहीं पड़ता! जैसे-जैसे सहजता बैठती है, वैसे-वैसे, जहां-जहां राग था, मोह था, क्रोध था, लोभ थावे सब गिरने लगे।
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सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। काम तो गया ही वासना तो गई हीनिष्काम तक चला गया। राग तो गया ही वैराग्य भी चला गया। यह थोड़ा समझने का सूत्र है।
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जो आदमी छोड़ कर भागेगा राग तो छोड़ेगा, वैराग्य पकड़ जाएगा। यह कुछ फर्क न हुआ बड़ा। गृहस्थी छूटी, संन्यास पकड़ गया ! पहले गृहस्थी को पकड़े हुए थे, वह मोह था। अब संन्यास को पकड़े हुए हो, वह मोह है। पकड़ कायम है।
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पहले एक बड़े मकान में रहते थे, उसकी पकड़ थी; तब अगर कोई कहता कि वृक्ष के नीचे रुक जाओ, तो अपमान अनुभव होता। अब वृक्ष के नीचे रुकते हैं, और अगर कोई कहे कि मकान में आ जाओ, तो असंभव मालूम पड़ता है कि हम तो विरागी है; हम कैसे मकान में आ सकते हैं !
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यह तो राग की पकड़ थी, अब विराग की पकड़ हो गई। पहले काम पकड़े थे, अब निष्काम ने पकड़ लिया। लेकिन पकड़ जारी है। मुट्ठी खुली नहीं, मुट्ठी बंद है।
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और ध्यान रहे, उलटे की पकड़ तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि सूक्ष्म है। एक आदमी धन पकड़ता है; और एक आदमी त्याग पकड़ता है। पहले वह धन इकट्ठा करता था और रात-दिन सोचता था, यह ढेर कैसे बड़ा हो जाए। अब वह धन इकट्ठा नहीं करता, दान करता है। अब दान का ढेर लगा रहा है ! यह दिखाई नहीं पड़ता। धन का ढेर दिखाई पड़ता था; वह प्रत्यक्ष था, वह संसार का था। अब वह दान का ढेर लगा रहा है !
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एक सज्जन मुझे मिलने आए; दानी हैं। उनकी पत्नी ने कहा, मेरे पति को बस, एक ही रस हैअब तक कोई एक लाख रुपया दान कर चुके हैं। पति ने पत्नी को हिलाया और कहा, एक लाख नहीं; एक लाख दस हजार। यह दान का ढेर लग रहा है। वह गिनती उसकी भी जारी है ! यह आदमी पहले धन के ढेर को लगा रहा था; अब यह दान के ढेर को लगा रहा है। फर्क क्या है दोनों में ? धन से हटा, धन से विराग पकड़ गया।
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कबीर कहते हैं, सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। राग भी गया, विराग भी गया। अब न तो मैं गृहस्थ हूं और न संन्यासी हूं। यही संन्यास का लक्षण है। पहले तुम गृहस्थ थे, फिर संन्यस्त हुए गृहस्थ के विपरीत तो जहां विपरीतता है, वहां द्वंद्व है। जहां द्वंद्व है, वहां द्वैत है। जहां द्वैत है, वहां परमात्मा का प्रवेश नहीं। उसका प्रवेश तो सिर्फ अद्वैत अद्वंद्व की स्थिति में होता है।
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तुम्हारा संन्यास अगर गृहस्थ के विपरीत है, तो सच्चा संन्यास नहीं है। इसमें एक छूटा, दूसरा पकड़ा। तुम्हारा संन्यास अगर द्वंद्व का विसर्जन है, तो परम संन्यास है।
काशी में जहां कबीर रहते थे। बड़ी खतरनाक जगह वे रहते थे। वहां संन्यासी ही संन्यासी हैं। और वे संन्यासी कहते थे, यह कबीर ! यह भी कोई संन्यासी है। यह ज्ञानी है ! यह जुलाहा ? पत्नी, बच्चा सब कुछ; घर द्वारसब कुछ है। यह कैसा ज्ञानी है ? यह कैसा ज्ञान है ! हम सब छोड़ दिए हैं।
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अस्मिता त्याग की भी निर्मित होती है; अहंकार उससे भी बन जाता है। और अहंकार गार्हस्थ है और निर-अहंकार भाव संन्यास है।
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कबीर के संन्यास को देखना मुश्किल है। बुद्ध का संन्यास देखना बिल्कुल आसान है। अंधा भी देख लेगा; उसमें कुछ बड़ी प्रज्ञा की जरूरत नहीं है। कबीर का संन्यास बड़ा सूक्ष्म है। उसको देखना मुश्किल है। उसको सिर्फ आंखवाला ही देख पाएगा।
ओशो

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