सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

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*जब हम ऊजड़ चालते, तब कहते मारग मांहि ।*
*दादू पहुंचे पंथ चल, कहैं यहु मारग नांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक सूफी फकीर जिंदगी भर मस्जिद जाता रहा। इतने नियम से मस्जिद गया, पांचों बार दिन में नमाज पढ़ने ! तो लोग यह सोचना ही भूल गये थे कि कभी ऐसा भी होगा कि वह मस्जिद न आएगा। कभी एकाध—दो बार ऐसा हुआ था, जब कि वह बहुत बीमार था और उठ न सका, तो ही। कभी गांव छोड्कर नहीं गया, कि दूसरे गाव जाए और वहा मस्जिद न हो। 
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लेकिन एक दिन सुबह लोगों ने पाया कि वह नहीं आया, कल शाम तक तो आया था, बिलकुल ठीक था, तो बीमार भी नहीं हो सकता, एक ही शक हुआ कि बूढ़ा आदमी मर न गया हो! मस्जिद के बाद लोग सीधे उसके घर पहुंचे। वह अपने घर के सामने, झोपड़े के सामने एक वृक्ष के नीचे बैठा ढपली बजा रहा था और गीत गा रहा था। 
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उन्होंने कहा, बुढ़ापे में नास्तिक हो गये ? बुढ़ापे में कुफ्र सूझा ? काफिर हो गये? मस्जिद क्यों नहीं आए ? वह फकीर हंसा और उसने कहा कि जब तक अज्ञानी थे तब तक आए। जब तक पता नहीं था कि परमात्मा सब जगह है, तब तक मस्जिद आए। अब तो पता है कि सब जगह है, यहां भी है, वहा भी है, कहां आना, कहां जाना ! अब तो जहां हैं वहीं गीत गाएंगे। अब तो हर गीत नमाज है। 
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मगर भीड़ इससे राजी नहीं हुई। भीड़ ने कहा कि बुढ़ापे में सठिया गया। तो भीड़ तुमसे कहेगी तुम पागल हो गये हो। तुम्हारा रंग—ढंग समझ में न आएगा। भीड़ ठीक ही कहती है। मगर यह पागलपन इस जगत में सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। बुद्ध को भी भीड़ ने कहा था—पागल हो गये ! कबीर को भी भीड़ ने कहा था—पागल हो गये ? क्राइस्ट को भी भीड़ ने कहा था—पागल हो गये ! भीड़ सदा से यही कहती रही है। तुम सौभाग्यशाली हो कि भीड़ तुमको भी पागल कह रही है। इस पगलपन को कष्ट मत समझना। इसे भीड़ की तरफ से तुम्हारे व्यक्तित्व का सम्मान समझना।
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पूछते हो तुम : मैं आपको पाकर पाता हूं कि सब पा गया हूं। हालांकि लोग कहते हैं मैं पागल हो गया हूं। तुम भी ठीक हो, लोग भी ठीक हैं। अपनी— अपनी दृष्टि, अपने— अपने देखने का ढंग ! उन्हें तो कैसे पता चले कि तुम कुछ पा गये हो उन्हें तो तुम्हारे अंतस्थल में प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। वे तो कैसे तुम्हारे भीतर झांकें ? वहां तो अकेले तुम हो। वहां तो तुम देख सकते हो, या मैं देख सकता हूं तुम्हारे भीतर। तुम ठीक कह रहे हो। 
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सम्पत्ति तुम्हें मिलनी शुरू हो गयी है। तुम संपदा के मार्ग पर हो। तुम्हें अंतर का राज्य धीरे— धीरे उपलब्ध हुआ जा रहा है। पहले कदम उठ चुके हैं, बीज बो दिये गये हैं, फसल भी समय पर आ जाएगी। तुम ठीक दिशा में यात्रा कर रहे हो। लेकिन भीड़ से तुम दूर जा रहे हो। भीड़ पागल कहेगी। इससे तुम चिंता मत लेना। अन्यथा चिंता के कारण तुम्हारी अंतर्यात्रा में बाधा पड़ जाएगी। इसे तुम निंदा भी न समझना। भीड़ को कहने देना। 
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तुम इसका उत्तर देने में भी मत पड़ा। तुम हंसना। जब भीड़ पागल ही मानती है तो अब तुम काहे को फिकर कर रहे हो ! भीड़ कुछ कहे, तुम हंसना। तुम धन्यवाद देना। अब जब पागल ही हो गये हो तो पूरे ही पागल हो जाना उचित है। अब तुम समझदारी सिद्ध करने की कोशिश मत करना। क्योंकि उससे भीड़ तो राजी नहीं होगी, तुम्हारी अंतर्यात्रा में अड़चनें आ जाएगी। तुम अब बुद्धिमानी छोडो। तुम्हें बुद्धिमानी से ज्यादा बड़ी बुद्धिमानी हाथ लग गयी है। तुम्हें प्रेम का रास्ता पकड़ में आ गया है।
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तुम्हारी जिंदगी में परमात्मा के शराब की पहली झलक आने लगी। लोग कहने लगे कि तुम लड़खडा कर चल रहे हो। लोग कहने लगे कि अब तुम्हारा पुराना ढंग न रहा। लोग कहने लगे कि तुम पागल हो गये हो। 'फिर किसीने नजरें चुराई हैं।' तुम्हारी नजरें कहीं और जा रही हैं। जहा संसार की नजरें लगी हैं वहा तुम अब नहीं देख रहे हो, इसलिए लोग कह रहे हैं कि तुम पागल हो गये हो। 'फिर किसी ने नजर चुराई है'। परमात्मा तुम्हारे हृदय को चुराने में लग गया है।
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तुम्हें खयाल है, इस देश के पास एक शब्द है परमात्मा के लिए जो दुनिया की किसी भाषा में नहीं है—हरि। 'हरि' का अर्थ होता है, चोर। हर ले जो, चुरा ले जाए जो। परमात्मा सबसे बड़ा चोर है।... अब तुम नाराज मत हो जाना कि मैंने परमात्मा को चोर कह दिया ! अब तुम सोचने मत लगना कि इस आदमी के झांसे में नहीं आना है ! यह तो हद्द हो गयी, परमात्मा और चोर ! लेकिन परमात्मा चोर है, मैं क्या करूं ? सच को तो कहना ही होगा। 
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तुम झांसे में आओ कि न आओ, मगर सच को तो सच जैसा है कहना होगा।... परमात्मा चुराता है इस ढंग से जिस ढंग से कोई नहीं चुराता। पैरों की आहट भी नहीं मिलती और कब हृदय चुरा लिया जाता है, पता नहीं चलता। किस अंधेरी रात में, कब परमात्मा तुम्हारे द्वार—दरवाजे को तोड़कर भीतर आ जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम सोए ही रहते हो और चोरी चले जाते हो।
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फिर किसी ने नजर चुराई है
जज्वए—दिल तेरी दुहाई है
तुम लोग क्या कहते हैं इसकी फिक्र छोडो। तुम तो अपने दिल, अपनी भावना को धन्यवाद दो। 'जज्वए—दिल तेरी दुहाई है'। है हृदय के भाव, तेरा धन्यवाद ! तुझे परमात्मा ने इस योग्य समझा कि तेरी नजर चुरा ले, कि तेरा हृदय चुरा ले।
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जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं ही तेरी याद आई है
रेगिस्तान में जहां सब तरफ मरुस्थल होता है, कहीं छोटे—मोटे मरूद्यान होते हैं, सारा मरुस्थल मरूद्यान को पागल समझता होगा। क्योंकि भीड़ तो मरुस्थल की है, विस्तार तो मरुस्थल का है, उसमें कहीं एक छोटा—सा पानी का चश्मा है, दो—चार वृक्ष ऊग आए हैं, थोड़ी हरी घास भी लगती है, मरुस्थल कहता होगा कि यह स्थान पागल हो गया। 
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स्वाभाविक है मरुस्थल को यह कहना। यह मरुस्थल को कहना ही पड़ेगा नहीं तो मरुस्थल को बड़ी आत्मग्लानि होगी। अगर मरुस्थल यह माने कि यही सही होने का ढंग है हरा होना, फूल से भरा होना, नाचते हुए होना, मस्त होना, प्रभु के प्रेम में डुबा हुआ होना—अगर यही होने का ठीक—ठीक ढंग है, तो फिर मैं क्या कर रहा हूं ? तो मेरा होने का ढंग गलत है।
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अगर तुम अंधों की दुनिया में पहुंच जाओ तो अपनी आंखों की घोषणा मत करना, अन्यथा वे तुम्हारी आंखें निकाल लेंगे। क्योंकि अंधे बर्दाश्त न कर सकेंगे कि तुम आंखवाले हो। तुम्हारी आंखें उनको उनके अंधेपन की याद दिलाएगी। 
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इसीलिए तो जीसस को सूली लगानी पड़ी मैसूर को मार डालना पड़ा, सुकरात को जहर पिलाना पड़ा इसीलिए तो महावीर के कानों में कीले ठोके गये। इसीलिए तो बुद्ध पर पत्थर पड़े। उनके कारण हमें याद आती है कि हम चूक गये। उनका साम्राज्य देख कर हमें याद आती है कि हम भिखमंगे के भिखमंगे रह गये।
--अथातो भक्ति जिज्ञासा # 2 ... ओशो..

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