*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*राम बिना सब फीका लागै, करणी कथा गियान ।*
*सकल अविरथा, कोटि कर, दादू जोग धियान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक अंग्रेज लेखक ने अपना संस्मरण लिखा है कि वह दिल्ली आया--जार्ज माइक्स उसका नाम है। दिल्ली स्टेशन पर एक सरदार जी ने उसका हाथ पकड़ लिया और जल्दी-जल्दी उसके हाथ की रेखाएं देख कर बोलने लगा भविष्य।
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जार्ज माइक्स ने कहा कि भाई, मुझे इसमें उत्सुकता नहीं है। मगर वह बोले ही गया। उसने हाथ भी न छोड़ा। शिष्टाचारवश जार्ज माइक्स सुनता रहा। फिर उस सरदार ने कहा, उत्सुकता हो या न हो, लेकिन मैंने तो भविष्यवाणी की; तो दो रुपया फीस।
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तो उसने दो रुपया फीस दे दी कि चलो झंझट मिटी। लेकिन अभी भी उसने हाथ नहीं छोड़ा, दो रुपया पाकर वह और बोलने लगा। माइक्स ने कहा कि देखो भाई, अब मत बोलो, नहीं तो फिर तुम्हारी फीस हो जाएगी। तो उस सरदार ने कहा, अरे सांसारिक ! दो रुपये के पीछे दीवाना हुआ जा रहा है ?
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और फिर वह अपना जारी रखे है बोलना। भौतिकवादी ! और बोलना अपना वह जारी रखे है। और बोल कर उसने कहा, दो रुपये फिर फीस हो गई।अब इसमें भौतिकवादी कौन है ? पूरब पश्चिम को कहता है भौतिकवादी। लेकिन तुम पूरब से ज्यादा भौतिकवादी लोग कहीं भी न पा सकोगे।
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जैसी धन की पकड़ भारतीयों में है, ऐसी तुम कहीं भी न पा सकोगे। और कारण ? कारण साफ है। संतोष होता तो बात दूसरी होती। संतोष नहीं है, सांत्वना है। तुम्हारे पास बड़े मकान नहीं हैं। तुम कहते हो, क्या रखा है मकानों में ? जो मजा झोपड़ी में है, वह कहां मकानों में ? लेकिन तुम पूरी चेष्टा करते रहते हो कि मकान बड़ा कैसे हो जाए।
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बहुत वर्ष हुए, एक जैन साधु के पास मुझे ले जाया गया। वे बड़े जैन मुनि हैं, हजारों उनके शिष्य हैं। उन्होंने एक गीत अपना लिखा हुआ मुझे पढ़ कर सुनाया। गीत का अर्थ था--गीत गुजराती में था--गीत का अर्थ था कि तुम अपने सिंहासनों पर बैठे रहो, मैं अपनी धूल में मस्त हूं।
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तुम्हारे पद, तुम्हारे महल मेरे लिए व्यर्थ और असार हैं। तुम्हारे हीरे-जवाहरात मेरे लिए कंकड़-पत्थर हैं। तुम्हारा साम्राज्य मेरे लिए सपना है। तुम बैठे रहो अपने सिंहासनों पर, स्वर्ण सिंहासनों पर, मैं अपनी धूल में मस्त हूं। जो दस-पचास लोग इकट्ठे हो गए थे हम दोनों का मिलन देखने के लिए, उन सबके सिर हिलने लगे प्रशंसा में।
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मैंने उन मुनि को कहा कि अगर आप अपनी धूल में मस्त हैं, तो यह गीत किसी सम्राट को लिखना चाहिए; आप क्यों लिखते हैं ? लेकिन कोई सम्राट गीत नहीं लिखता कि रहे आओ तुम मस्त अपनी धूल में, मैं अपने सिंहासन पर मस्त हूं।
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कोई लिखता ही नहीं यह बात। कि तुम मजे से आनंद लो अपने कंकड़-पत्थरों का, मैं अपने हीरे-जवाहरात में मस्त हूं। कोई सम्राट ऐसा गीत नहीं लिखा कभी, आप क्यों लिखते हैं ? जरूर कोई उत्सुकता होगी सोने के सिंहासन में।
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हीरे-जवाहरातों में कोई छिपा हुआ रस है। धूल में आप मस्त नहीं हैं, र्ईष्या है। धूल में सांत्वना है, संतोष नहीं है। बड़ी कठिन है यह बात पहचाननी, क्योंकि अहंकार के बड़े विपरीत पड़ती है। और ये जो लोग सिर हिला रहे हैं, इनके सिर हिलाने से यह मत समझ लेना कि आपकी कविता कुछ सच है।
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ये सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि हम भी राजी हैं। यही हालत हमारी भी है। धूल में हम भी पड़े हैं, मगर हम भी दो कौड़ी का समझते हैं सिंहासन को। आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। आप हमारी आवाज हो। गरीब मुल्कों में त्याग का बड़ा महात्म्य हो जाता है। क्योंकि सब गरीबों को उससे सांत्वना मिलती है।
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दादू इसलिए सांत्वना नहीं मांगते हैं, वे कहते हैं: साईं सत संतोष दे।
ऐसा संतोष दे, ऐसा सच्चा संतोष दे, जो सांत्वना न हो। जो मेरे पास है, उसमें मैं आनंदित हो सकूं। जो मेरे पास नहीं है, उसका मुझे खयाल भी न उठे। उसके विरोध में भी खयाल न उठे, क्योंकि विरोध में भी खयाल उठना उत्सुकता है। सत संतोष बड़ी अनूठी बात है। वह ऐसी चित्त की दशा है कि तुम्हारे पास जो है उसमें तुम आनंदित हो।
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तुम अगर धूल में हो, तो तुम धूल में आनंदित हो। लेकिन धूल की तुलना तुम सिंहासन से नहीं करते हो। क्योंकि अगर तुम सच में ही धूल में आनंदित हो, तो तुम्हें जो सिंहासन पर है उस पर दया आएगी कि बेचारा, सिंहासन पर फंसा है।
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तुम्हें क्रोध न आएगा। तुम तुलना करके उसका अपमान न करना चाहोगे। क्योंकि तुम कहोगे कि मैं इतने आनंद में हूं धूल में और इस बेचारे को कुछ पता ही नहीं कि धूल का आनंद कैसा है। तुम अगर हार गए हो, तो तुम पाओगे, हार में ऐसी शांति है कि जो विजेता हो गए हैं उनको तुमसे ईष्या होगी।
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लेकिन अगर तुम्हें विजेताओं से ईष्या हो रही है और उनकी निंदा करने का तुम्हारे मन में भाव उठता है, तो तुमने अपनी हार में सत संतोष नहीं पाया। तुम समझे ही नहीं बात। अंगूर खट्टे हैं। छलांग छोटी थी।
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साईं सत संतोष दे...
दादू ने भी संतोष करके देख लिया है, सांत्वना करके देख ली है, वह किसी मतलब का नहीं है। उससे आकांक्षाएं मिटती नहीं, केवल छिप जाती हैं। उससे रोग समाप्त नहीं होता, केवल आवृत हो जाता है। सच्चा संतोष दे !
क्या है सच्चा संतोष ? सच्चा संतोष है अहोभाव। होना ही इतनी बड़ी बात है कि और क्या चाहिए ? श्वास चल रही है, यह इतनी बड़ी घटना है कि और क्या मांगें ? आंख देखती है फूलों को,आकाश के तारों को, अब और देखने को क्या बचा ?
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कान सुनते हैं पक्षियों के गीत को, हवा की आवाज को वृक्षों से गूंजते हुए, अब और क्या संगीत बचा ? इस क्षण में जो घट रहा है, वह परम है, ऐसी अनुभूति दे। कि कोई तुलना न रह जाए, तुलना उठे ही न। इसे तुम सूत्र समझ लो, कसौटी। अगर तुलना उठे, तो तुम संतोष में नहीं हो। संतोष अतुलनीय है, सांत्वना तुलना है ।

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