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*दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि,*
*भावै जीव जगाइ ।*
*भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक प्रश्न(२) ~तो पहला चरण है, एक के प्रति समर्पण। क्योंकि वहां से, उस झरोखे से तुम्हें सूरज दिखायी पड़ा। खयाल रखना, जब तुम किसी झरोखे के पास खड़े होकर सूर्य को नमस्कार करते हो तो तुम झरोखे को नमस्कार नहीं कर रहे हो। हालांकि चाहे तुम्हें पहले ऐसा ही लगता हो कि इस झरोखे की बड़ी कृपा—इसी से तो सूरज दिखायी पड़ा न !
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नहीं तो अंधेरे में ही रहते—तो चाहे तुम झरोखे को धन्यवाद भी दो, लेकिन झरोखे के माध्यम से तुम धन्यवाद तो सूरज को ही दे रहे हो। झरोखे ने तो कुछ किया नहीं, सिर्फ द्वार दिया, बाधा नहीं बना। बुद्ध का इतना ही अर्थ है —जिसके भीतर सब बाधा गिर गयी है, तुम आर—पार देख सकते हो। तो पहली समर्पण की भावना है—बुद्धं शरणं गच्छामि।
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दूसरी समर्पण की धारणा है—संघं शरणं गच्छामि। संघं का अर्थ होता है, उन सबको जो जागे हैं। उन सबको जो जाग रहे हैं। उन सबको जो जागने के करीब आ रहे। उन सबको जो करवट ले रहे। उन सबको जिनके सपने में जागरण की पहली किरण पड गयी है।
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जिनकी नींद में खलल पड़ गयी है। तो संघ का स्थूल प्रतीक तो यह है कि जिन लोगों ने बुद्ध से दीक्षा ले ली है, उन समस्त संन्यासियों की मैं शरण जाता हूं। लेकिन इसका मूल अर्थ तो यही हुआ न कि जिन्होंने स्रोत में प्रवेश कर लिया, जो स्रोतापन्न फल को प्राप्त हो गए। जिन्होंने संन्यास लिया है।
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संन्यास तो अभीप्सा है, खबर है कि मैं अब अपने जीवन की धारा बदलता हूं। अब नहीं धन होगा मूल्यवान मेरे लिए। अब होगा ध्यान मूल्यवान मेरे लिए। अब नहीं खोजूंगा स्थूल को, सूक्ष्म की यात्रा पर जाता हूं। जिसको मृत्यु मिटा देती है, अब उस पर मेरी आंख खराब नहीं करूंगा, अब अमृत की खोज में जाता हूं। अंधेरे से प्रकाश की तरफ, मृत्यु से अमृत की तरफ, असत्य से सत्य की तरफ, ऐसी जो प्रार्थना है वही तो संन्यास है। असतो मा सदगमय।
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संघ का अर्थ है, वे सब जो स्रोत—आपन्न हो गए। वे सब, जिन्होंने निर्णय लिया है सत्य की खोज का। जो सत्य के अन्वेषण पर निकल गए हैं। उनकी शरण जाता हूं। थोड़ी दृष्टि बड़ी हुई, अब बुद्ध ही काफी नहीं। बुद्ध में तो दिखता ही है, लेकिन अब उनमें भी दिखायी पड़ने लगा जो बुद्ध के पास बैठे हैं।
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होना भी यही चाहिए। जब बुद्ध के पास रहोगे तो उनकी सुगंध पकड़ेगी न तुम्हें। इस बगीचे से घूमकर निकलोगे, घर जाकर पहुंच जाओगे अपनी पुरानी गंदगी में, तो भी तुम पाओगे वस्त्रों में थोड़ी सी फूलों की गंध साथ चली आयी है। बुद्ध के पास बैठोगे —उठोगे, तो उनका स्वाद लगेगा, उनकी बूंदें तुम पर बरसेंगी, उनका स्पर्श तुम्हें होगा।
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जो हवा उन्हें छुएगी, वही हवा तुम्हें भी छुएगी। बुद्ध के पास उठोगे——बैठोगे, उनका रंग लगेगा, उनका ढंग लगेगा। बुद्ध के पास उठोगे —बैठोगे, तो बुद्धत्व संक्रामक है। याद रखना, बीमारी ही थोडे ही लगती है, स्वास्थ्य भी लग जाता है। पागलपन ही थोड़े ही लगता है; पागलों के साथ रहोगे, पागल हो जाओगे, मुक्तों के साथ रहोगे तो मुक्त हो जाओगे—होने लगोगे।
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तो अब दृष्टि थोड़ी बड़ी हुई। अब बुद्ध ही नहीं दिखायी पड़ते, अब बुद्ध में वे सब दिखायी पड़ने लगे जो उनके आसपास हैं। जो सब बुद्ध की तरफ उन्मुख हैं। दूर है अभी मंजिल उनकी, चल पड़े हैं। बुद्ध पहुंच गए गंगासागर, गंगा गिर गयी सागर में, लेकिन गंगा में जो और लहरें चली जा रही हैं सागर की तरफ भागती हुई, वे भी पहुंच ही जाएंगी, पहुंचने को ही हैं, आज नहीं कल की ही बात है, समय का ही भेद है।
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पहले नमस्कार किया वृक्ष को, फिर नमस्कार किया बीज को, क्योंकि बीज भी वृक्ष तो हो ही जाएगा। देर— अबेर के लिए नमस्कार रोकोगे क्या ! सिर्फ समय के कारण नमस्कार को रोकोगे क्या ! और जब एक बार नमस्कार करने का मजा आ जाता है, जब बुद्ध के चरणों में सिर रखने का मजा आ गया, तो मन करेगा जितने चरणों में सिर रखा जा सके, रखो।
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जब एक बार इतना मजा आया है और एक के पास इतना मजा आया है, काश, तुम्हारा सिर सभी के चरणों में लोटने लगे तो आनंद की धार बह उठेगी। इसलिए, संघं शरणं गच्छामि। और भी एक कदम आगे बात उठती है, क्योंकि संघ की शरण जाने का अर्थ हुआ, जो सत्य की खोज कर रहे हैं उनकी शरण जाता हूं। बुद्ध की शरण जाने का अर्थ हुआ, जिसने सत्य पा लिया है उसकी शरण जाता हूं।
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और धम्मं शरणं गच्छामि का अर्थ होता है, बुद्ध की शरण भी तो इसीलिए गए न कि उन्होंने सत्य को पा लिया, और संघ की शरण भी इसीलिए गए न कि वे सत्य की खोज में जा रहे हैं, तो सत्य की ही शरण जा रहे हो, चाहे बुद्ध की शरण जाओ, चाहे संघ की शरण जाओ। इसलिए, धम्मं शरणं गच्छामि।
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धम्म का अर्थ होता है सत्य। जो परम सत्य है, वही धर्म है। इसलिए अंतिम रूप में आखिरी शरण है—धर्म की शरण जाता हूं; उस परम नियम की शरण जाता हूं जो संसार को चला रहा है; उस ऋत की शरण जाता हूं, ताओ की शरण जाता हूं, जो संसार को धारे हुए है। धर्म का अर्थ, जिसने संसार को धारण किया है। जिस पर सब खेल चल रहा है, उस परम में डूबता हूं।
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बौद्ध उसे भगवान नहीं कहते, क्योंकि भक्त की वह भाषा नहीं है, वे उसे कहते हैं, धर्म। वह ज्ञानी की भाषा है, ध्यानी की भाषा है। वे कहते हैं, नियम, परम नियम, शाश्वत नियम। भक्त इसी को भगवान कहता है, फर्क कुछ भी नहीं है।
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भक्त कहता है, भगवान ने सबको धारा हुआ है। और ज्ञानी कहता है, धर्म ने सबको धारा हुआ है। शब्दों का भेद है। भक्त धर्म को रूप दे देता है, तो भगवान। प्रतिमा बना लेता है, तो भगवान। इतनी प्रतिमा नहीं बनाता, नियम को शुद्ध नियम रहने देता है। रूप नहीं देता, व्याख्या नहीं देता।
OSHO
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