शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

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*काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि ।*
*दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक प्रश्न(१) ~ बुद्ध ने संघं शरणं गच्छामि क्यों कहा ? कृपाकर हमें इसका अभिप्राय समझाएं।
समर्पण अनिवार्य है। फिर चाहे मार्ग भक्ति का हो,चाहे ध्यान का। फर्क ही पड़ेगा कि भक्ति के मार्ग पर समर्पण पहले है, पहले चरण में, और ध्यान के मार्ग पर समर्पण है अंतिम चरण में।
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भक्ति कहती है, अहंकार को छोड्कर ही मंदिर में प्रवेश करो। क्योंकि जिसे छोड़ना ही है, उसे इतने दूर भी क्यों साथ ढोना ? छोड़ ही दो। भक्ति पहले ही क्षण में अहंकार को गिरा देती है। भक्ति को सुविधा है, क्योंकि भगवान की धारणा है। ध्यानी को वैसी सुविधा नहीं है। 
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ध्यानी चलता है बिना किसी धारणा के। तो अहंकार बचा रहेगा। किसके चरणों में रखें अहंकार को ? ध्यानी तो अनुभव के बाद ही, गहरे अनुभव में उतरकर ही, आखिरी घड़ी में, जब कुछ और शेष न रह जाएगा, सिर्फ सूक्ष्म अहंकार मात्र शेष रह जाएगा, वही पर्दा रहेगा। 
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बहुत झीना पर्दा, इतना झीना, इतना पारदर्शी कि बहुतो को तो लगेगा कि यह पर्दा है ही नहीं। जैसे शुद्ध कांच। जब तक तुम पास ही न आ जाओगे, तुम्हें लगेगा कोई पर्दा है ही नहीं बीच में। सब साफ दिखायी पड रहा है। लेकिन जब तुम पास आओगे, तब टकराओगे। उस घड़ी में अहंकार को छोड़ना पड़ता है। अंतिम घड़ी में।
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तो ध्यान—मार्ग भी अंततः कैसे तुम अहंकार को छोड़ोगे उसके लिए व्यवस्था जुटाता है। जुटानी ही पड़ेगी। यह बुद्ध की व्यवस्था है कि उन्होंने त्रि—शरण कहे। बुद्ध इन्हें त्रि—रत्न कहते हैं। हैं भी ये रत्न। इनसे बहुमूल्य और कुछ भी नहीं, क्योंकि इन्हीं को खोकर हमने सब खोया है। और इन्हीं को पाकर हम सब पा लेंगे।
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ये हैं तीन रत्न—
बुद्धं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि।
और इनके पीछे एक तर्कसरणी है। समझो। पहले तो बुद्ध के प्रति। बुद्ध का अर्थ गौतम बुद्ध नहीं है। इस भ्रांति में मत पड़ना। बुद्ध का अर्थ है, बुद्धत्व।
एक बार बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप तो कहते हैं कि किसी की शरण में जाने की जरूरत नहीं है और लोग आपके सामने ही आकर कहते है—बुद्धं शरणं गच्छामि ? आप चुप रहते हैं। चुप्पी से तो समर्थन मिलता है। यह तो मौन समर्थन हो गया। आपको इनकार करना चाहिए।
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तो गौतम बुद्ध ने कहा, वे मेरी शरण जाते हों तो मैं इंकार करूं, और मेरी शरण तो जाएंगे भी कैसे ? क्योंकि मैं तो बचा भी नहीं। वे बुद्धत्व की शरण जाते हैं। जौ बुद्ध हुए हैं अतीत में, जो बुद्ध आज हैं, और जो बुद्ध कभी होंगे, उन सभी के सारभूत तत्व का नाम बुद्धत्व है। जो कभी जागे और कभी जागेंगे और जाग रहे हैं, उस जागरण का नाम बुद्धत्व है।
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तो पूछने वाले ने पूछा, फिर आपके ही चरणों में आकर क्यों कहते हैं ? 
कहीं भी कह दें। तो उन्होंने कहा, वह उनसे पूछो, वह उनकी समस्या है। उन्हें सब जगह दिखायी नहीं पड़ता, उन्हें मुझमें दिखायी पड़ता है। चलो, यहीं से शुरुआत सही, कहीं से तो शुरुआत हो ! झुकना कहीं तो सीखें। आज मुझमें दिखा है, कल और में भी दिखेगा, परसों और में भी दिखेगा, फिर उनकी दृष्टि बड़ी होती जाएगी। 
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एक दफा दिख जाए हीरा, तो फिर तुम्हें बहुत जगह दिखायी पड़ेगा। और एक बार हीरे की ठीक—ठीक परख आ जाए, तो फिर जौहरी की दुकान पर जो साफ—सुथरे, निखरे हीरे रखे हैं, उनमें ही नहीं, खदानों में भी जो हीरे पड़े हैं, जो अभी साफ—सुथरे नहीं हैं, उनमें भी हीरा दिखायी पड़ जाएगा। परख उग जाए।
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तो बुद्ध में और साधारण व्यक्ति में इतना ही फर्क है कि साधारण व्यक्ति ऐसा हीरा है जो अभी खदान में पड़ा है, और बुद्ध ऐसे हीरे हैं जिसको साफ—सुथरा किया गया, तराशा गया, जिस पर चमक आ गयी है। बुद्ध ने अपने हीरे के साथ जो करना था कर लिया, तुमने अपने हीरे के साथ जो करना था अभी नहीं किया। लेकिन जिसको हीरा पहचान में आ गया, उसे तो तुममें भी हीरा दिखायी पड़ जाएगा।
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तो बुद्ध ने कहा, अगर मुझमें उन्हें दिखायी पड़ती है बुद्धत्व की झलक, चलो, यही ठीक ! आज यहां दिखायी पड़ती है, कल और भी कहीं दिखायी पड़ेगी, फिर दिखायी पड़ती जाएगी। फिर सब तरफ दिखायी पड़ने लगेगी।
OSHO

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