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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू मड़ा मसाण का, केता करै डफान ।*
*मृतक मुर्दा गोर का, बहुत करै अभिमान ॥*
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*तरक चिंतावणी कौ अंग ॥*
तेल घीव गुड़ कै टांगरै, कितनी माखी रोसी ।
आप कमावै औराँ बरजै, पुंनि कहाँ तैं होसी ॥४॥
तेल, घी और गुड़ पर अनेकों मक्खियाँ भिन-भिनाती रहती हैं । अनेकों मक्खियाँ उन पर टांगरै = चिपके-चिपके मर भी जाती हैं किन्तु यह कितनी हास्यास्पद बात है कि इन पदार्थों का स्वामी इनको बेचकर स्वयं तो लाभ कमाता ही है किन्तु अन्यों को लाभ कमाते देख उनकी आलोचना करता है । वस्तुतः ऐसा सौदा बेचने पर पाप ही पाप होता है क्योंकि जीवहिंसा तो होती ही है । बताइये ऐसे सौदा में पुण्य किस प्रकार अर्जित किया जा सकता है । अर्थात् नहीं अर्जित किया जा सकता ॥४॥
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बेला तेला आठैं चौदसि, बर्त कियाँ काँइ तांड़ै ।
बषनां कहै सरावगि सोई, तीनि टांगरा न मांडै ॥५॥
बेला = एक दिन निराहार, दूसरे दिन भोजन; तेला = दो दिन निराहार तीसरे दिन भोजन; अष्टमी = महीने की आठवीं तिथि; चौदसि = महिने की चौदहवीं तिथि; जैसे व्रत करके जैनधर्मी ऊंची-ऊंची आवाज में(तांडै) बखान करता है कि मैंने इतनी भारी तपस्या करली है कि अब मुझे निर्वाण मिलने में तनिक भी सन्देह नहीं है किन्तु इन व्रतों को करने का लाभ तब तक नहीं है जब तक कि तीनि टांगरा = तीनों गुणों = सत्व, रज, तम को वशीभूत न कर लिया जाये । वस्तुतः सरावगि = श्रावक = जैन वही है जो सत-रज-तम को जीतकर परमात्म-चिंतन करे ॥५॥
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सोइ सरावगि भैंसि न जाकै, भैंसि करै तो बांधी राखै ।
वा पीवै पाणी अणछाण्यौ, थाँकौ धरम सारवग जाण्यौ ॥६॥
बषनांजी कहते हैं, हे श्रावकों ! आपके जैनधर्म का यथार्थ रहस्य हमने जान लिया है । वस्तुतः श्रावक वह है जो माया रूपी भैंस को अपने पास नहीं रखता ।
कदाचित् लोकव्यवहार को निभाने के लिये माया रखना आवश्यक हो तो उतनी ही माया एकत्रित करनी-कमानी चाहिये जिससे लोकव्यवहार सध जाये । उसका संग्रह न करे । क्योंकि माया मनुष्य को अणछाण्यौ पाणी = अनुचित मार्ग पर ले जाती है और अन्त में पतित कर देती है ॥६॥
(क्रमशः)
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