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*खंड खंड निज ना भया, इकलस एकै नूर ।*
*ज्यों था त्यों ही तेज है, ज्योति रही भरपूर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९-१२)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१९८ ब्रह्म अगाध । अद्धा
अकल हिं कौन कलै कलि मांही ।
आदि अंत मघि महा पुरुष सब, पार हि पावै नाहीं ॥टेक॥
ब्रह्मा आदि विचारत थाके, शंकर सोच शरीरा ।
नारद सहित सकल सिध साधक, कोउ न लहै तट तीरा ॥१॥
शेष सहस्त्र द्वै रसन रटत नित, परम प्रमाण न जाना ।
नेति नेति कहि निगम पुकारत, तेऊ हैं हैराना ॥२॥
ख्याल परे षडदर्शन खोजै, कोउ खबर नहिं पावै ।
अगम अगम गगन गति गोविन्द, रज्जब खग कहां धावै ॥३॥६॥
ब्रह्म की अगाधता बता रहे हैं -
✦ निरावयव अखंड ब्रह्म का कलियुग में खंड कौन कर सकता है ? सृष्टि के आदि मध्य और अंत में होने वाले सभी महापुरुषों ने उसका पार नहीं पाया है ।
✦ ब्रह्मा से आदि प्रजापति विचारते विचारते थक गये हैं । शंकर के शरीर के अंत:करण में भी निरंतर उसका विचार होता ही रहता है । नारद के सहित सभी सिद्ध साधक विचार करते हैं किंतु कोई भी उस ब्रह्म समुद्र के तट पर जाकर उसका अगला तट नहीं प्राप्त कर सकता अर्थात पार नहीं पा सकता ।
✦ शेष दो हजार जिह्वा से नित उसका नाम रटते हैं किंतु उस परम प्रभु के माप को वे भी नहीं जानते । वेद उसका विचार विशेष रूप से करते हैं किंतु वे भी आश्चर्यचकित होकर नेति नेति पुकारते हुए अपार ही कहते हैं ।
✦ षडदर्शन भी उसके खोज करने के विचार मे पड़े हैं किंतु कोई उसका ठीक पता नहीं लगा पाता । जैसे आकाश में पक्षी कहां तक उड़ सकता है ? वह तो उसका पार पाये बिना ही थक जायगा । वैसे ही ब्रह्म अगम अगाध है उसका पार कोई भी नहीं पा सकता ।
(क्रमशः)
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