मंगलवार, 23 जनवरी 2024

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*दादू साचे को झूठा कहैं, झूठे को साचा ।*
*राम दुहाई काढिये, कंठ तैं वाचा ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ऐसा हुआ। कबीर के जीवन में एक अनूठा उल्लेख है। कबीर की ख्याति फैलने लगी—फैलनी ही चाहिए थी, ऐसे कमल कभी—कभी खिलते हैं। अपूर्व कमल खिला था। सुगंध पहुंचने लगी लोगों तक। लेकिन अड़चन थी। कबीर का अस्तित्व परंपरागत तो नहीं था—कभी किसी ज्नीञा का नहीं रहा। परंपरा मुर्दों की होती है, जिंदा आदमियों की नहीं होती। तो यह भी पक्का नहीं था—कबीर हिंदू हैं कि मुसलमान हैं।
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असल में ऐसा व्यक्ति न तो हिंदू होता है, न मुसलमान होता है। फिर जुलाहे का काम करते थे। और ब्राह्मणों को बड़ी बेचैनी थी काशी के। क्योंकि लोग इस जुलाहे की तरफ जाने लगे। ब्राह्मणों के दरबार खाली होने लगे और लोग इस जुलाहे की तरफ जाने लगे। और यह बात तो बड़ी बेचैनी की थी। परंपरागत धंधा, प्रतिष्ठा, मान—मर्यादा, न्यस्त स्वार्थ ! तो ब्राह्मणों ने तरकीब सोची, कुछ उपाय करना पड़ेगा।
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और जब भी ब्राह्मणों को कोई तरकीब सूझती है तो दो ही तरह की सूझ सकती है। क्योंकि दो ही तरह से परंपरा बंधी है। या तो कबीर के आचरण पर कुछ धब्बा पड़ जाए, तो एक उपाय है। आचरण पर धब्बा डालने की दो ही व्यवस्थाएं हैं—या तो किसी स्त्री को उलझा दो और या धन—पैसे में उलझा दो। बस दो चीजों में से कुछ हो जाए तो काम हो जाए।
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लेकिन धन—पैसे से भी उतनी कठिनाई पैदा नहीं होती, जितनी इस देश में स्त्री से हो सकती है। क्योंकि इस देश का पूरा मन काम—दमन से भरा हुआ है। इस देश का मन स्त्री के प्रति स्वस्थ नहीं है। अत्यंत अस्वस्थ, रुग्ण और बीमार है। तो एक वेश्या को पैसे देकर तैयार कर लिया कि जब कबीर सांझ को बेचने आएं अपना कपड़ा बाजार में तो तू हाथ पकड़ लेना।
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वेश्या को तो पैसे मिले थे, कोई अड़चन न थी, उसको तो पैसे से प्रयोजन था; जब कबीर सांझ को अपने कपड़े बेचकर लौटने लगे तो उसने भरे बाजार में काशी के उनका हाथ पकड़ लिया। और उनसे लिपटकर रोने लगी और कहने लगी, क्यों बगुला भगत, मुझे अकेली छोड्कर तुम कहां चले आए ? मेरे पास न तो पेट भरने को अन्न है न तन ढंकने को वस्त्र और तुम्हारे जैसे ढोंगी की सर्वत्र पूजा हो रही है। 
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और वह तो धाड़ मार—मार कर रोने लगी। और भीड़ इकट्ठी हो गयी। भीड़ तो तैयार ही थी—वह ब्राह्मण तो तैयार ही थे। पत्थर फेंकने लगे, कबीर को गालियां दी जाने लगीं। लेकिन वेश्या भी बहुत चौंकी और ब्राह्मण भी बहुत चौके, कबीर ने कहा तो अच्छा किया, तू आ गयी, इतनी देर क्यों राह देखी ? अरे पागल, जब मैं जिंदा हूं ? 
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तब तो वह जरा वेश्या घबडायी कि यह आदमी क्या कह रहा है ? क्योंकि वह तो सब बना—बनाया था। यह तो बात ऐसे ही करने की थी और कबीर ने तो हाथ पकड़ लिया उसका कि अब आ ही गयी है तो अब साथ ही रहेंगे। अब वह घबडायी कि इस के से और कहा झंझट हो गयी ! अब वह इधर—उधर देखने लगी।
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तो ब्राह्मणों ने जिन्होंने उसे जमाया था, वे भी भीड़ में सरक गये कि यह, यह सोचा ही नहीं था, यह बात भी हो सकती है ! और कबीर ने कहा, अब आ ही गयी तो घर चल ! भाड़ में जाए यह पूजा—प्रतिष्ठा, अरे तुझे छोड्कर ऐसी पूजा—प्रतिष्ठा में क्या रखा है ! तू इतने दिन कहां रही ! वह औरत तो सोचने लगी अब करना क्या है ? इसके चंगुल से कैसे निकलना है ? और वह तो उसका हाथ पकड़कर ले चले। अब वह इंकार भी न कर सके।
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वह तो ले गये उसे घर अपने झोपड़े पर, उसके पैर दबाने लगे। उसने कहा कि महाराज, क्या कर रहे ? अब मुझे और लज्जित मत करो। मुझे क्षमा करो, मुझे जाने दो। मैं कहां चक्कर में पड़ गयी ! उन्होंने कहा, अब किसी कारण से चक्कर में पड़ी, लेकिन तू मुसीबत में तो रही ही होगी, नहीं तो चार पैसे के लिए कोई ऐसी झंझट करता है ! अब तू फिकिर छोड़। खाना बना कर उसको खिलाने बैठ गये ! वह खा रही और रो रही।
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वह उनके पैरों पर गिर पड़ी कि मुझे क्षमा कर दो, मुझसे बड़ी भूल हो गयी, मुझसे भूल ऐसी हो गयी कि अब आत्महत्या करूं तो भी शायद यह न धुलेगी। अब यह जिंदगी भर मेरी छाती में कांटे की तरह गड़ी रहेगी। चार पैसे के लिए मैंने क्या किया ! मगर ब्राह्मण चुप नहीं बैठे। उन्होंने देखा कि यह घर ले गया इसको, वेश्या को, तो वे तो राजा के पास भागे चले गये।
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उन्होंने जाकर काशी—नरेश को कहा कि हद हो गयी, आप भी जाते हैं इस ढोंगी के पास, वह एक वेश्या को घर लेकर बैठ गया है। बुलावा भेजा। कबीर अकेले नहीं आए, उसको साथ ही लेकर आए। वह कहे भी कि मुझे जाने दें, मुझे कहीं जाना नहीं है, अब वह और घबडाए कि अब यह सम्राट के सामने ले चला। तो कबीर ने कहा, तू फिकर क्यों करती है। जनम—जनम के बिछड़े मिल गये। वह अपनी ही लगाए जा रहे।
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सम्राट के दरबार में भी उसको अंदर ले गये। वहां तो वह स्त्री घबड़ा गयी। और जब सम्राट ने देखा कि वह वेश्या का हाथ पकड़े चले आ रहे हैं, तो वह भी थोड़ा घबडाए। उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं और किस तरह अपनी प्रतिष्ठा और यश को नष्ट कर रहे हैं ! 
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उन्होंने कहा, खाक करें प्रतिष्ठा—यश ! इसके पहले कि वह कुछ बोलें, वह स्त्री चिल्लायी कि क्षमा करना, पहले मुझे बोलने दो। मेरी कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है, मैं सिर्फ पैसे के पीछे यह उपद्रव किये हूं और पैर पर कबीर के गिर पड़ी और सम्राट से उसने कहा कि मुझे किसी तरह छुटकारा दिला दो। मुझे ब्राह्मणों ने उलझा दिया है।
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सम्राट कबीर से पूछे कि तुम कैसे पागल हो ! कबीर ने कहा, अब और क्या करने का इसमें उपाय था ! और मुझे तो कुछ फर्क नहीं पडता। मैं तो कर्ता नहीं हूं। तो यह खेल भी देखा। द्रष्टा तो द्रष्टा ही रहेगा। भोक्ता होने का कोई उपाय नहीं। यह तो मौका था मेरी परीक्षा का कि क्या मैं चौथे में रह सकता हूं ? और मैं चौथे में ही रहा। और रत्ती भर चौथे से नहीं डिगा। यह एक स्वप्न है, इस तल पर मेरा होना नहीं है।
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यह जो चौथा तल है, उस चौथे तल के लिए अष्टावक्र कहते हैं—
सुप्तोऽपि न सुमुप्तौ।
सोए तो भी ज्ञानी सोया नहीं, एक दीया जलता, एक दीया अहर्निश जलता, अखंड जलता। स्वप्नेउपि शयितो न च।
देखे स्वप्न, तो भी जानता कि मैं देखनेवाला हूं देखा गया नहीं।
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जागरेउपि न जागर्ति।
जागकर भी जागा हुआ नहीं होता, क्योंकि वह तो महारूप से जागा हुआ है। महाजागृति को उपलब्ध है, इस क्षुद्र जागृति से अब कुछ लेना—देना नहीं है। यह धोखा तो अंधों के लिए है। यह धोखा तो उनके लिए है जो जागे हुए नहीं हैं, उनको लगता है यह जागृति है। जो जाग गये उनको किसी इतने बड़े शब्द का पता चलता कि यह जागृति तो नींद ही मालूम होती है।
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धीरस्तृप्त पदे पदे।
और ऐसी जो चित्त की, चैतन्य की दशा है, वह पद—पद पर परमतृप्ति से भरी है। क्षण— क्षण। इसे समझना। ऐसा धीरपुरुष क्षण— क्षण तृप्त है। क्यों ? अब अतृप्ति का कोई उपाय ही न रहा। अतृप्ति आती है तादात्म्य से। या तो बंध जाओ जागृति से, या बंध जाओ स्वप्न से, या बंध जाओ सुषुप्ति से। जहां बंधे, वहा संकट है। जहां बंधे, वहां गांठ पड़ी। जहां गांठ पडी, वहा पीड़ा है। जहां पीड़ा, वहां संताप, चिंता और सारा नर्क पीछे चला आता है। गांठ ही नहीं पड़ती ऐसे आदमी को। वह हर जगह से अछूता निकल जाता है।
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इसीलिए तो कबीर ने कहा है, ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया। खूब जतन कर ओढ़ी चदरिया, ज्यों की त्यों धरि दीन्ही। खूब जतन कर। जतन शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, उसका मतलब होता है, अवेयरनेस; उसका अर्थ होता है, जागृति, होश रहे। खूब जतन से, जरा भूल—चूक न की, जरा नींद न ली, जरा झपकी न खाई, जागे —जागे।
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खूब जतन से ओढ़ी रे चदरिया। और जीवन की चादर को इतने जतन से ओढ़ा कि जरा दाग न लगा। और ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया। जैसी पायी थी जन्म के साथ, स्वच्छ, निर्मल, क्यारी, वैसी ही मृत्यु के समय वापस दे दी, निर्मल, क्यारी, स्वच्छ। जैसे उपयोग ही न की गयी। भोक्ता न बने, कर्ता न बने, तो जीवन की चादर पर दाग नहीं पड़ते हैं। एक ही जतन है, साक्षी बने रहना।
ओशो

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