मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

*संसार का स्वरूप तथा ईश्वरलाभ का उपाय*

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*जिहिं घट प्रकट राम है, सो घट तज्या न जाइ ।*
*नैनहुँ मांही राखिये, दादू आप नशाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)संसार का स्वरूप तथा ईश्वरलाभ का उपाय*
डाक्टर और मास्टर श्यामपुकुर के दुमँजले मकान में गये । उस मकान के ऊपर बाहरवाले बारामदे में दो कमरे हैं । एक की लम्बाई पूर्व और पश्चिम की ओर है, दूसरे की उत्तर और दक्षिण की ओर । इनमें से पहलेवाले कमरे में जाकर उन्होंने देखा, श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । पास में डाक्टर भादुड़ी तथा दूसरे भक्त हैं ।
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डाक्टर ने नाड़ी देखी । पीड़ा का सब हाल उन्होंने पूछकर मालूम किया ।
क्रमशः ईश्वर के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी ।
भादुड़ी - बात जानते हो, क्या है ? सब स्वप्नवत् ।
डाक्टर - सब कुछ भ्रम है । परन्तु किसको भ्रम है और क्यों भ्रम है ? और सब लोग भ्रम जानकर भी फिर बातचीत क्यों करते हैं ? ‘ईश्वर सत्य है और उसकी सृष्टि मिथ्या है’ इसमें में विश्वास नहीं कर सकता ।
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श्रीरामकृष्ण - 'तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ’ यह बड़ा सुन्दर भाव है । जब तक यह बोध है कि देह सत्य है, जब तक 'मैं' और 'तुम' का भाव बना हुआ है, तब तक सेव्य और सेवक भाव ही अच्छा है । 'मैं वही हूँ' इस तरह की बुद्धि अच्छी नहीं ।
"अच्छा, मैं तुम्हें एक और बात बताऊँ ? किसी कमरे को चाहे तुम एक किनारे से देखो या कमरे के भीतर से देखो, कमरा वही है ।"
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भादुड़ी - (डाक्टर से) - ये सब बातें वेदान्त में हैं । शास्त्र पढ़ो, तब समझोगे ।
डाक्टर – क्यों ? क्या ये शास्त्रों को पढ़कर विद्वान् हुए हैं ? और यही बात तो ये भी कहते हैं । क्या बिना शास्त्रों को पढ़े हो नहीं सकता ?
श्रीरामकृष्ण - अजी, पर मैंने कितने शास्त्र सुने हैं !
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डाक्टर - केवल सुनने से बहुतसी भूलें रह सकती हैं । आपने केवल सुना ही नहीं !
फिर दूसरी बातचीत होने लगी ।
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - मैंने सुना है, तुम कहते हो कि मैं(श्रीरामकृष्ण) पागल हूँ । इसी से ये लोग(मास्टर आदि की ओर इशारा करके) तुम्हारे पास नहीं जाना चाहते ।
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डाक्टर - (मास्टर की ओर देखकर) - मैं इन्हें पागल क्यों कहने लगा ?
"परन्तु हाँ इनके अहंकार की बात अवश्य कही थी । भला ये आदमियों को पैरों की धूल क्यों लेने देते हैं ?"
मास्टर - नहीं तो लोग रोने लगते हैं ।
डाक्टर - वह उनकी भूल है, उन्हें समझना चाहिए ।
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मास्टर – क्यों ? सर्वभूतों में क्या नारायण नहीं हैं ?
डाक्टर - इसके लिए मुझे कोई आपत्ति नहीं । तो फिर तुम्हें सब के पैरों की धूल लेनी चाहिए ।
मास्टर - किसी किसी मनुष्य में उनका प्रकाश अधिक है । पानी सब जगह है, परन्तु तालाब में, नदी में, समुद्र में वह अधिक है । आप फैराडे को जितना मानियेगा, उतना ही क्या किसी नये 'बैचलर ऑफ साइन्स' (Bachelor of Science) को भी मानियेगा ?
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डाक्टर - हाँ, यह मैं मानता हूँ । परन्तु ईश्वर को बीच में क्यों लाते हो ?
मास्टर - हम लोग एक दूसरे को नमस्कार इसलिए करते हैं कि सब के हृदय में ईश्वर का वास है । इन विषयों को आपने न तो अधिक पढ़ा है और न इन पर विचार ही किया है ।
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श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - किस किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है । तुमसे तो मैंने कहा, सूर्य की किरणें मिट्टी में गिरती हैं तो प्रकाश एक तरह का होता है, पेड़ों में और तरह का, फिर आईने में एक दूसरा ही प्रकाश देखने को मिलता है । देखो न, प्रह्लाद आदि और ये लोग क्या बराबर हैं ? प्रह्लाद का जीवन और मन, सर्वस्व ही ईश्वर को अर्पित हो चुका था ।
डाक्टर चुप हो रहे । सब लोग चुप हैं ।
(क्रमशः)

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