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*दादू हिन्दू तुरक न होइबा, साहिब सेती काम ।*
*षट् दर्शन के संग न जाइबा, निर्पख कहबा राम ॥*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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निरपख निज अंग, मिले न काहू के संग,
रंग्यो जु हरी के रंग, हृदै हंस ज्ञान है ।
चाल मांहि चाल काढी, दोउ पक्ष रही ठाढ़ी१,
लांबी ले अधिक बाढ़ी, प्रवीन विनान२ है ॥
नीच ऊंच छाड़ी दोय, आतम लई जी जोय,
ऐसी विधि रमे सोय, अधिक समान है ।
कबीर जैसे पंथ धायो, कीट भृंग होय गायो,
ऐसी विधि पति पायो, दादूजी सुजान है ॥२॥
दादू जी निष्पक्षता बता रहे हैं -
✦दादूजी ने अपने शरीर में निष्पक्षता रखी है, वे किसी के संग नहीं मिले हैं, हरि प्रेम रूप रंग में रँगे हुये रहे हैं । उनके हृदय में सदा हंस के समान सार ग्रहण रूप ज्ञान रहा है हिन्दू-मुसलमानों की पक्ष रूप चाल से ही उन्होने निष्पक्ष चाल निकाली है ।
✦हिन्दू-मुसलमानों को दोनों पक्ष तो अपनी अपनी मर्यादा में ही स्थित रही हैं और दादूजी ने तो निष्पक्षता रूपी लम्बी चाल पकड़ी है और उसे अधिक बढाया है । वे आत्म विज्ञान२ में बड़े प्रवीण हैं, नीच ऊँच दोनों ही भावना छोड़ दी है, आत्मा के वास्तव स्वरुप का साक्षात्कार कर लिया है । इस प्रकार निष्पक्ष संसार में विचरे हैं परमार्थ पथ में अधिक चतुर हैं, कबीर के समान साधन मार्ग में चले हैं ।
✦भृंग के शब्द से कीट भृंग हो जाता है, वैसे ही गुरु के शब्दों से जीव ब्रह्म हो जाता है । इस सिद्धान्त को निज मुख से कथन किया है । इस प्रकार बुद्धिमान दादूजी ने प्रभु को प्राप्त किया है ।
(क्रमशः)

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