सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

करि सिंगार हँसती फिरै

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू सब देखैं अस्थूल को, यहु ऐसा आकार ।*
*सूक्ष्म सहज न सूझई, निराकार निरधार ॥*
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रांडाँ मिल मंगल कियौ, मुणस नहीं घर माहिं ।
करि सिंगार हँसती फिरै, रुली बिगूचै काहिं ॥३॥
लड़के के विवाह में बारात प्रायः दूसरे गाँव / शहर में जाती है । जब बारात चली जाती है तब घर में मुणस = पुरुष एक भी नहीं रहता है, औरतें ही औरतें रहती हैं ।
वे ‘खोड़्या’ नामक एक उपक्रम करती हैं जिसमें एक स्त्री दूल्हा बनती है, दूसरी दुल्हन बनती है और अन्य सभी औरतें बाराती बन जाती है । ऐसे उपक्रम के ऊपर ही कटाक्ष किया गया है । बषनांजी कहते हैं, औरतों ही औरतों ने मिलकर मंगल = विवाह किया । उस समय घर में एक भी पुरुष नहीं था ।
वे श्रृंगार करके हँसती हुई इस आयोजन को करती हैं किन्तु क्यों वे रुली = घूमती फिरती हैं । इससे तो उन्हें बिगूचै = बदनामी ही हाथ लगती है । कारण, विवाह तो विपरीत लिंगी का होना ही सफल होता है । समलिंगी का विवाह विवाह न होकर ढोंग मात्र है । इसी प्रकार बिना भगवद्भक्ति के भेष धारण करना बदनामी का कारण है ॥३॥
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लोक दिखावा भजन कौ अंग ॥
कर मांहै माला फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
मन फिरै ठाहर घणी, बषनां यहु तौ सुमिरण नाहिं ॥४॥
हाथ में माला फिरती रहती है । मुख में जिव्हा फिरती रहती है । मन अनेकों स्थानों पर घूमता-फिरता है । बषनांजी कहते हैं, जबतक इन तीनों का तालमेल उचित रीति से नहीं होगा, तबतक ऐसे कृत्य को भगवत्स्मरण कहना सार्थक नहीं है ।
यह साषी कबीरजी की इस साषी की छाया है । “कर माहीं माला फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं । मनवा तौ चहूँ दिसि फिरै, यहु तौ सुमिरण नांहि” ॥४॥
(क्रमशः)

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