बुधवार, 20 मार्च 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४०६

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४०६)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*४०६. आत्म परमात्म रास । एकताल*
*घट घट गोपी घट घट कान्ह,*
*घट घट राम अमर अस्थान ॥टेक॥*
*गंगा जमना अंतर-वेद,*
*सरस्वती नीर बहै प्रस्वेद ॥१॥*
*कुंज केलि तहं परम विसाल,*
*सब संगी मिल खेलैं रास ॥२॥*
*तहँ बिन बैना बाजैं तूर,*
*विकसै कँवल चंद अरु सूर ॥३॥*
*पूरण ब्रह्म परम प्रकाश,*
*तहँ निज देखै दादू दास ॥४॥*
*इति राग भैरू समाप्त ॥२४॥*
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प्रत्येक के शरीर में जो मन की वृत्तियाँ है यह ही गोपियां कहलाती हैं और जो साक्षीचैतन्य ब्रह्म हैं वह ही श्रीकृष्ण का स्वरूप हैं । अष्टदलकमल ही वृन्दावन हैं । जहां परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण विराजते हैं और पिंगला रूपा नाडी गंगा इडा नाडीरूपा यमुना नदी बहती हैं । इडा पिंगला के बीच जो षट्चक्र हैं वह ही अन्तर्वेदरुपी देश हैं ।
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जैसे सरस्वती नदी पृथिवी के अन्दर बहती हैं वैसे ही सुषुम्नारूप सरस्वती का इडा पिंगल का रूप गंगा यमुना के साथ सम्बन्ध होकर अन्दर ही सरस्वती का नीर बह रहा हैं । वृत्तियों का चेतन ब्रह्म के साथ सम्बन्ध होने से वृत्तियों की तदाकारता से परमानन्द की जो प्राप्ति है वह ही आन्तर कुंजकेलि हैं । जब मन बुद्धि इन्द्रियाँ ये सब भगवदाकार बन जाती हैं तब ही आन्तर रास होता हैं ।
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मधुसूदन जी लिख रहे हैं कि –
भगवान् परम आनन्दस्वरूप हैं, जब ये मन मन में स्वयं ही आते हैं तब मन परमानन्दस्वरूप रसभाव को प्राप्त होता हैं । इस आन्तररास में वाणी के बिना ही ब्रह्मावृत्तियों से ही उस ब्रह्म का गान होता हैं । विनाश ही हाथों के अनाहतनाद का बाजा बजता रहता हैं । हृदय आनन्द से भर जाता हैं । जब इडा नाडी रूपचन्द्र पिंगला नाडी रूप सूर्य सुषुम्ना अग्नि में दोनों लों हो जाते हैं । उस समय परम प्रकाशमय ब्रह्म को भक्त लोग निजात्मरूप से देखते हैं ।
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गीता में कहा है कि –
बाहर के विषयों में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यान जनित सात्विक आनन्द हैं उसको प्राप्त होता हैं तदन्तर वह सच्चिदानन्दघनब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिनता से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता हैं ।
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यह ही साधक का ब्रह्म संस्पर्श कहलाता हैं । अर्थात् श्रवण मनन द्वारा अन्नमयादिकोशों से मुक्त होकर स्वरूपस्य होता हैं उसी समय यह उस को ब्रह्म के साथ अभिन्नता का अनुभव होता हैं ।
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भक्तों का यह सर्वस्वभूत भगवदाश्लेष वस्तुतः परम दुर्लभ हैं । यह तो ब्रह्मा सनकादिकों को भी प्राप्त नहीं हो सकता । परन्तु समय देखकर हे हनुमान् मैंने तुमको दिया हैं । इसी को ब्रह्मस्पर्श कहते हैं ।
इति श्रीमदात्माराम भैरवराग हिन्दीभाषानुवाद समाप्त ॥२४॥
(क्रमशः)

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