बुधवार, 20 मार्च 2024

जिसका साहिब तुरक न हिन्दू

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*हरि भज साफिल जीवना, पर उपकार समाइ ।*
*दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पंखी खाइ ॥*
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*साषीभूत कौ अंग ॥*
जिसका साहिब तुरक न हिन्दू, पखाँ दहूँ थैं न्यारा ।
बषनां बंदा चौड़ै धरिये, जलै गडै संसारा ॥
जिनका साहिब = इष्ट न हिन्दू और न मुसलमान बल्कि दोनों से न्यारा = विलक्षण एक परमात्मा मात्र है, उनका विदेह मोक्ष हो जाने के उपरान्त उनके शरीर को खुले स्थान पर ही रखा जाता है । शरीर को जलाने अथवा गाड़ने की प्रथा तो संसारियों के लिये होती है ॥१॥
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“दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पसु पंषी खाइ ॥”
कहा भयौ जे गाड़ी रावल, कहा भयौ जे जाली ।
दोऊ ठाहर दावा दीसै, ताथैं चौडै राली ॥२॥१
(*१ यह साषी वि. स. १७८५ की प्रति में नहीं है । वि. स. १७८० की प्रति तथा मंगलदासजी की पुस्तक में यह साषी दूसरे क्रमांक पर है ।)
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रावल = साधु-संतों के लिये दोनों ही स्थितियाँ एक समान हैं । उनका विचार होता है, चाहे मरणधर्मा – विनाशशील शरीर को गाड़ दिया जाए, चाहे जला दीया जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता । किन्तु कबीरजी के शरीर को लेकर भारी विवाद हिन्दू और मुसलमानों में हो गया था ।
कहीं ऐसा ही विवाद श्रीदादूजी की देह के सम्बन्ध में न हो जाए, दादूजी महाराज ने पवनदाग की बात अपने जीते जी ही स्थिर कर दी थी क्योंकि उनके भी दोनों ही संप्रदायों को मानने वाले शिष्य थे ।
अतः बषनांजी कहते हैं, दादूजी के ब्रह्मलीन हो जाने पर ऐसा लगता था कि दोनों समुदाय के शिष्य अपना-अपना दावा करेंगे, इसलिये उनके शरीर को न जलाया गया और न गाड़ा गया । उसे चौड़े में पवन दाग हेतु डाल दिया गया ।
जैसा दादूजी ने कहा है –
“दादू तहाँ चल जाइये, जहाँ न अपना कोय ।
माटी खाय जनावरा, सहज महोछा होइ ॥
जे गाडै ते तुरक कहावै, जे जालै ये हिन्दू ।
दादू निरपख साहिब सुमिरै, समझै नहिं सो भौंदू ॥३॥२
(*२ इस साषी में छाप दादूजी की है किन्तु रचना बषनां की ही है ।)
जो मुर्दों को गाड़ते हैं वे तुरक = मुसलमान कहलाते हैं । इसके विपरीत जो जलाते हैं वे हिन्दू कहे जाते हैं । किन्तु दादूजी महाराज जो हिन्दू और मुसलमान नामक दोनों कृत्रिम पक्षों से निरपेक्ष परब्रह्म-परमात्मा को सुमरते हैं के इस रहस्य को नहीं समझते हैं, वे मूर्ख हैं ॥३॥
(क्रमशः)

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