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*हीरा मन पर राखिये, तब दूजा चढै न रंग ।*
*दादू यों मन थिर भया, अविनाशी के संग ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक सम्राट हुआ नीरो; उसने चिकित्सक रख छोड़े थे। क्योंकि एक दफा खाने में उसका मन न भरता। दिन में दो दफा खाने में मन न भरता। तीन भी तृप्ति न होती, चार भी तृप्ति न होती, वह चाहता कि चौबीस घंटे भोजन ही करता रहे। बस, स्वाद ही सब कुछ हो गया। तो उसने चिकित्सक रख छोड़े थे। वह खाना खाए, वे उसे उलटी करवा दें। उलटी कर के वह फिर खाने पर जुट जाए। जैसे ही खाना पूरा हो, चिकित्सक उसको दवा दे कर फिर उलटी करवा दें। वह फिर खाने पर जुट जाए।
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तुम कहोगे, वह आदमी पागल था। लेकिन तुम पाओगे इसी तरह का पागलपन कम-ज्यादा मात्रा में लोगों के जीवन में है। किसी को आंख का नशा है। बस, वह सौंदर्य की तलाश में घूम रहा है। दर-दर, द्वार-द्वार ठोकर खा रहा है कि कोई सुंदर चेहरा, कोई सुंदर शरीर दिख जाए। आंख की मान कर चल रहा है। आंख की अगर मान कर चले, तो भी अंधे रहोगे।
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क्योंकि आंख असली देखने वाला तत्व नहीं है। आंख तो सिर्फ झरोखा है, खिड़की है। उससे जो झांकता है, वह कोई और है। खिड़की से मत पूछो, झांकने वाले से पूछो। इंद्रियां तो झरोखे हैं। कोई संगीत में दीवाना है। बस, उसको धुन का नशा चढ़ा हुआ है। कोई शरीर की साज-सज्जा में लगा है। कोई स्पर्श का दीवाना है, कोई गंध का दीवाना है। लेकिन सभी इंद्रियों के दीवाने हैं और नौकरों की मान कर चल रहे हैं। मालिक से पूछो। मालिक कौन है सारी इंद्रियों का, जिसके हटते ही इंद्रियां व्यर्थ हो जाती हैं ?
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ऐसा हुआ कि उन्नीस सौ दस में काशी के नरेश का आपरेशन हुआ अपेंडिक्स का। तो उन्होंने कहा कि मैंने कसम ले रखी है कि बेहोशी की कोई दवा कभी न लूंगा। कभी कोई नशा न करूंगा। तो कोई इनस्थेशिया मैं नहीं ले सकता हूं। आप आपरेशन कर दें, लेकिन बिना किसी बेहोशी की दवा के। होश मैं न गंवाऊंगा। डाक्टरों ने कहा, यह कैसे हो सकेगा? यह कोई छोटा-मोटा कांटा निकालना नहीं है। यह तो पूरा पेट चीरा-फाड़ा जाएगा, हड्डी काटी जाएगी, घंटों लगेंगे। लेकिन काशी-नरेश ने कहा, आप उसकी फिक्र न करें। सिर्फ मुझे मेरी गीता पढ़ने दें। मैं अपनी गीता पढ़ता रहूंगा, आप अपना आपरेशन कर लें।
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कोई और उपाय न था। और अगर आपरेशन न किया जाए, तो भी मृत्यु होनी निश्चित थी। तो फिर यह खतरा लिया गया, कि मृत्यु तो होनी ही है, एक संभावना है, शायद–शायद यह आदमी बच जाए। काशी-नरेश गीता का पाठ करते रहे और आपरेशन जारी रहा। आपरेशन पूरा हो गया। चिकित्सक चकित हुए कि यह कैसे संभव है ? इतनी पीड़ा हुई होगी ! लेकिन काशी-नरेश ने कहा, मुझे पता न चला, क्योंकि मेरा ध्यान तो गीता पर लगा था।
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पता तो ध्यान से चलता है। अगर तुम्हारा ध्यान बदल जाए, तुम्हें जो-जो पता चलता है वह बदल जाएगा। पता ध्यान से चलता है, तुम्हें वही दिखायी पड़ता है जिस तरफ तुम ध्यान देना चाहते हो। जिस तरफ तुम ध्यान नहीं देना चाहते, वह तुम्हें पता ही नहीं चलता। तुम उसी बाजार से गुजर जाओगे, लेकिन पता तुम्हें उन्हीं चीजों का चलेगा जिन पर तुम ध्यान देना चाहते हो। चमार गुजरेगा, जूतों पर नजर रहेगी। जौहरी गुजरेगा, हीरों पर नजर रहेगी। तुम्हारी नजर वहां रहेगी जहां तुम्हारा ध्यान है। तुम वही देख लोगे जहां तुम्हारा ध्यान बह रहा है।
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इसलिए सारे जीवन की गहनतम कला ध्यान की मालकियत को उपलब्ध कर लेना है। फिर अगर तुम परमात्मा की तरफ बह रहे हो, संसार खो जाएगा। इसलिए तो ज्ञानी कहते हैं, संसार माया है। माया का यह मतलब तो नहीं है कि नहीं है। है तो पूरी तरह। लेकिन ज्ञानी कहते हैं, संसार माया है। और उन्होंने जाना है कि माया है। जानने का कारण यह है कि जब पूरा ध्यान परमात्मा की तरफ बहता है, संसार खो जाता है। क्योंकि जिस तरफ ध्यान नहीं है, उसके होने न होने में कोई अंतर नहीं रह जाता है।
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जिस तरफ ध्यान है, उस तरफ हम जीवन देते हैं। जहां ध्यान है, वहां अस्तित्व पैदा हो जाता है। जहां से ध्यान हट गया, वहां से अस्तित्व खो जाता है। ज्ञानी कहते हैं, परमात्मा सत्य है, संसार असत्य। क्या इसका यह अर्थ है कि यह जो संसार दिखायी पड़ रहा है, वह नहीं है ? यह पूरी तरह है, लेकिन ज्ञानी का ध्यान हट गया। अगर तुम्हारे मन में लोभ है तो धन सत्य है। अगर लोभ खो गया तो धन मिट्टी। धन अपने कारण धन नहीं है, तुम्हारे ध्यान के कारण धन है। वासना है तो शरीर बड़ा महत्वपूर्ण है, वासना खो गयी तो शरीर गौण हो गया।
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जहां से ध्यान हटेगा, वहां से अस्तित्व हट जाता है। जिस तरफ ध्यान जाएगा, वहां अस्तित्व प्रगट हो जाता है। और जिस दिन तुम यह समझ लोगे, उस दिन तुम अपने मालिक हो जाओगे। क्योंकि तुम्हें अपने भीतर के मालिक का पता चल गया। अब तुम नौकरों की नहीं सुनते। अब तुम गुलामों की मान कर नहीं चलते। अब तुम शिष्यों से नहीं पूछते। उनसे क्या पूछना है जिन्हें खुद ही पता नहीं है ! अब तुम गुरु से पूछते हो।
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नानक कहते हैं, ‘पंच का एक ध्यान ही गुरु है। जो कोई उसके संबंध में कहे, वह विचारपूर्वक कहे। क्योंकि उससे गहन, गंभीर और कोई बात नहीं।’ बहुत सोच कर कहे। ऐसे ही न कह दे। ऐसे बातचीत में न कह दे। क्योंकि उससे मूल्यवान कुछ भी नहीं है। उससे ज्यादा सारपूर्ण कुछ भी नहीं है।
ओशो
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