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*कौण जनम कहँ जाता है,*
*अरे भाई, राम छाड़ि कहाँ राता है ॥*
*मैं मैं मेरी इन सौं लाग, स्वाद पतंग न सूझै आग ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न : पुराण-कथा है, प्रह्लाद नास्तिक राजा हिरण्यकश्यप के यहां जन्म लेता है, और फिर हिरण्यकश्यप अपनी नास्तिकता सिद्ध करने के लिए प्रह्लाद को नदी में डुबोता है, पहाड़ से गिरवाता है, और अन्त में अपनी बहन होलिका से पूर्णिमा के दिन जलवाता है। और आश्चर्य तो यही है कि वह सभी जगह बच जाता है, और प्रभु के गुणगान गाता है। और तब से इस देश में होली जलाकर होली का उत्सव मनाते हैं, रंग गुलाल डालते हैं, आनंद मनाते हैं। कृपा करके इस पुराण-कथा का मर्म हमें समझाइये।
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पुराण इतिहास नहीं है। पुराण महाकाव्य है। पुराण में जो हुआ है, वह कभी हुआ है ऐसा नहीं, वरन सदा होता रहता है। तो पुराण में किन्हीं घटनाओं का अंकन नहीं है, वरन किन्हीं सत्यों की ओर इंगित है। पुराण शाश्वत है। ऐसा कभी हुआ था कि नास्तिक के घर आस्तिक का जन्म हुआ ? ऐसा नहीं; सदा ही नास्तिकता में ही आस्तिकता का जन्म होता है। सदा ही; और होने का उपाय ही नहीं है। आस्तिक की तरह तो कोई पैदा हो ही नहीं सकता; पैदा तो सभी नास्तिक की तरह होते हैं। फिर उसी नास्तिकता में आस्तिकता का फूल लगता है। तो नास्तिकता आस्तिकता की मां है, पिता है। नास्तिकता के गर्भ से ही आस्तिकता का आविर्भाव होता है।
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हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। हिरण्यकश्यप कभी हुआ या नहीं, मुझे प्रयोजन नहीं है। व्यर्थ की बातों में मुझे रस नहीं है। प्रह्लाद कभी हुए, न हुए, प्रह्लाद जानें। लेकिन इतना मुझे पता है, कि पुराण में जिस तरफ इशारा है, वह रोज होता है, प्रतिपल होता है, तुम्हारे भीतर हुआ है, तुम्हारे भीतर हो रहा है। और जब भी कभी मनुष्य होगा, कहीं भी मनुष्य होगा, पुराण का सत्य दोहराया जाएगा। पुराण का सार का निचोड़ है; घटनाएं नहीं, इतिहास नहीं, मनुष्य के जीवन का अन्तर्निहित सत्य है।
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बीता कल जा चुका, फिर भी उसकी पकड़ गहरी है; विदा हो चुका, फिर भी तुम्हारी गर्दन पर उसकी फांस है। समझो। पहली बात— साधारणतः तुम समझते हो कि नास्तिक आस्तिक का विरोधी है। वह गलत है। नास्तिक बेचारा विरोधी होगा कैसे ! नास्तिकता को आस्तिकता का पता नहीं है। नास्तिकता आस्तिकता से अपरिचित है, मिलन नहीं हुआ।
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इसलिए मैं कहता हूं, पुराण तथ्य नहीं है सत्य है। तुम अगर यह सिद्ध करने निकल जाओ कि आग जला न पायी प्रह्लाद को, तो तुम गलती में पड़ जाओगे, तो तुम भूल में पड़ जाओगे, तो तुम्हारी दृष्टि भ्रान्त हो जाएगी। तुम अगर यह समझो कि पहाड़ से फेंका और चोट न खायी, तो तुम गलती में पड़ जाओगे। नहीं, बात गहरी है, इससे कहीं बहुत गहरी है। यह कोई ऊपर की चोटों की बात नहीं है।
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हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है—हर आज कल के खिलाफ बगावत है, बीते कल के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा है। अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र। इसलिए मैं कहता हूं, पुराण तथ्य नहीं है, सत्य है।
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क्योंकि हम जानते हैं, जीसस को सूली लगी, जीसस मर गये। सुकरात को जहर दिया, सुकरात मर गये। मंसूर को काटा, मंसूर मर गया। लेकिन मरा सच में या प्रतीत हुआ कि मर गये ? जीसस अब भी जिंदा है—मारनेवाले मर गये। सुकरात अभी भी जिंदा है—जहर पिलानेवालों का कोई पता नहीं। सुकरात ने कहा था—जिन्होंने उसे जहर दिया—कि ध्यान रखो कि तुम मुझे मारकर भी न मार पाओगे; और तुम्हारे नाम की अगर कोई याद रहेगी तो सिर्फ मेरे साथ, कि तुमने मुझे जहर दिया था, तुम जियोगे भी तो मेरे नाम के साथ।
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निश्चित ही आज सुकरात के मारनेवालों का अगर कहीं कोई नाम है तो बस इतना ही कि#सुकरात#को उन्होंने मारा था।थोड़ा सोचो ! हिरण्यकश्यप का नाम होता, प्रह्लाद के बिना ? प्रह्लाद के कारण ही। अन्यथा कितने हिरण्यकश्यप होते हैं, होते रहते हैं ! आज हम जानते हैं, किसकी आज्ञा से जीसस को सूली लगी थी। उस वाइसराय का नाम याद है।
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भक्त का इतना ही अर्थ है कि भक्त बांस की पोंगरी की भांति हो गया; भगवान से कहता है, ‘गाना हो गा लो, न गाना हो न गाओ-गीत तुम्हारे हैं ! मैं सिर्फ बांस की पोंगरी हूं। तुम गाओगे तो बांसुरी जैसा मालूम होऊंगा; तुम न गाओगे तो बांस की पोंगरी रह जाऊंगा। गीत तुम्हारे हैं, मेरा कुछ भी नहीं।'
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'हां, अगर गीत में कहीं कोई बाधा पड़े, सुर भंग हो, तो मेरी भूल समझ लेना—बांस की पोंगरी कहीं इरछी-तिरछी है; जो मिला था उसे ठीक-ठीक बाहर न ला पायी; जो पाया था उसे अभिव्यक्त न कर पायी। भूल अगर हो जाए तो मेरी समझ लेना। लेकिन अगर कुछ और हो, सब तुम्हारा है।’ भक्त का इतना ही अर्थ है।
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नास्तिकता में ही आस्तिक पैदा होगा। तुम सभी नास्तिक हो। हिरण्यकश्यप बाहर नहीं है, न ही प्रह्लाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद दो नहीं हैं—प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटनेवाली दो घटनाएं हैं। जब तक तुम्हारे मन में सन्देह है—हिरण्यकश्यप है—तब तक तुम्हारे भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे—लेकिन तुम जला न पाओगे। उनको जलाने की कोशिश में तुम्हारे ही हाथ जल जाएंगे।
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ओशो, भक्ति—सूत्र,
प्रवचन 16 से संकलित
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