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*साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर ।*
*दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*स०-व्रज भूमि से नेह रहै निहचै,*
*चतुरो नग रूप अनूप है नागो ।*
*सनकादिक भाव चुके नहिं दाँव सु,*
*भक्ति की नाव चढ्यो सुख सिंधु समागो ॥*
*हरि सार अपार जपै रसना,*
*दिन रात अखंड रहे लिव लागो ।*
*राघो कहै घर आदि गह्यो जिन,*
*छाड्यो नहीं अति ही बड़ भागो ॥२८३॥*
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निश्चय ही चतुरा नागाजी हीरा के समान अनुपम भक्त थे । व्रजभूमि से आपका अति ही स्नेह था । आप निश्चिन्त होकर व्रजभूमि में घूमते थे ।
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और सनकादिक के दिगम्बर भाव का दाँव चूके नहीं थे अर्थात कौपीन मात्र ही रखते थे अथवा निम्बार्क संप्रदाय सनकादिक से चला है, इससे उनके भाव विचारों को धारण करने का दाँव आप नहीं चूके थे । आप श्रेष्ठ भक्ति रूप नौका पर चढ़ कर सुख-सागर परमात्मा के स्वरूप के मध्य पहुँचकर उसी में समा गये हैं ।
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संसार के सार तत्व हरि हैं, उन अपार हरि का नाम ही आप रात्रि दिन जिह्वा से जपते थे और आप की वृत्ति अखंड रूप से प्रभु में ही लगी रहती थी ।
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राघवदासजी कहते हैं-जिन गुरु को पहले घर में रहते हुए ग्रहण किया था, उनको त्यागने का प्रसंग आने पर भी त्यागा नहीं । इससे ज्ञात होता है कि आप अति ही बड़भागी भक्त थे ॥२८३॥
(क्रमशः)
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