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*दादू हौं बलिहारी सुरति की, सबकी करै सँभाल ।*
*कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*शोभूरामजी के भ्राता माधवदासजी और संतदासजी*
*छप्पय-*
*शोभा शोभूराम के, भ्रातों की सुनियो सबै ॥*
*माधवदास महन्त, भक्ति जग शक्ति दिखाई ।*
*आयसु से संवाद, अग्नि पै चदर मँगाई ॥*
*संतदास सुठ शील, साच सुमिरण को सागर ।*
*साधु सेव कर निपुन, कर्म भ्रम छेके कागर ॥*
*भगवत भजन बधावने, आलस नांहिं कियो कबै ।*
*शोभा शोभूराम के, भ्रातों की सुनियो सबै ॥२८४॥*
अब सज्जन शोभूरामजी के दो भ्राता-माधवदासजी और संतदासजी की शोभा रूप कथा श्रवण करें । महन्त माधवदासजी ने भक्ति के द्वारा जगत् के लोगों को शक्ति दिखाई थी । गुरुजनों की आज्ञा से, एक समय कनफटे योगियों के साथ आपका विवाद हुआ था ।
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तब कनफटे योगियों ने कहा था- "हम अपने श्रृंगी और कानों के मुद्राओं को अग्नि में डालते हैं और तुम अपनी कंठी माला अग्नि में डालो । जिसकी वस्तुयें जल जायेंगी उसकी हार और न होगी उसकी जीत मानी जायगी ।"
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आपने कहा- "मैं कंठी माला नहीं डालकर अपनी चद्दर अग्नि में डालता हूँ । तुम अपने पत्थर के मुद्रा और श्रृंगी को डालो ।" ऐसा ही किया । कनफटों के श्रृंगी और मुद्रायें जल गई किन्तु आपका वस्त्र भी नहीं जला । आपने अग्नि से अपनी चद्दर ज्यों की त्यों मँगवा ली ।
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दूसरे संतदासजी सुन्दर और सुशील थे, सत्य और हरि स्मरण के तो मानो सागर ही थे । साधु-सेवा करने मैं आप बहुत ही निपुण थे और कर्म तथा भ्रम के कागज को नष्ट करने वाले थे । भगवद्भजन को बढ़ाने वाले थे । आलस्य तो आपने कभी किया ही नहीं था ॥२८४॥
(क्रमशः)
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