मंगलवार, 26 मार्च 2024

*४२. बेली कौ अंग ५/९*

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*४२. बेली कौ अंग ५/९*
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कहि जगजीवन तेज जल, काया कूप मंझारि ।
ग्यांन कुदालि१ खोदि ले, प्रेम प्रगट करि वारि ॥५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि काया रुपी कूप में प्रभु प्रभाव तेज है । इसे ज्ञान रुपी कुदाल या फावड़े से खोदकर प्रेम रुपी जल प्राप्त कर ।
(१. कुदालि=मट्टी खोदने का एक औजार)
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घर के आंगन हे सखी, एक सुरंगी बेलि ।
जगजीवन सींचै नहीं, ताथैं रस की रेलि२ ॥६॥
(२. रेल=प्रवाह)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन आंगन में एक सुन्दर लता मोहक रंगवाली है जो नहीं सींचे जाने पर भी रस से भरपूर है । यह प्रभु आनंद है ।
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जल तरणी३ गंगोदकी, सुरही४ पीवै घाटि ।
जगजीवन बांधी चरै, प्रेम नूर के पाटि ॥७॥
(३. तरण=नौका) (४. सुरहि=गौ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन रुपी नौका भगवद् प्रेम नदी में विचरती है । और देह रुपी गौ वहां से ज्ञान जल पीती है वह प्रेम व तेज के खूंटे से बंधी पोषित होती है ।
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उद बीरज आकार ए, जल करि सींचौ रांम ।
कहि जगजीवन प्रांण परि, यों हरि वरिषॏ नांम ॥८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रज वीर्य से आकार पाये इस जीव को प्रभु आप सींचे हैं प्रभु इन प्राणों के रक्षार्थ आप अपना नाम स्मरण बरसाइये ।
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कहि जगजीवन व्रिच्छ का, मूल सींचि नहिं पाइ ।
पात न साखा लूंडि५ जल, तरवर सूकत जाइ ॥९॥
(५. लूंड=निराधार)
संतजगजीवन जी कहते हैं इस ज्ञान रुपी वृक्ष का मूल तो सींचते नहीं है । जिससे पत्ते व शाखायें निराधार होती है व वृक्ष सूखता जाता है ।
इति बेली कौ अंग संपूर्ण ॥४२॥
(क्रमशः)

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