सोमवार, 11 मार्च 2024

*४१. साच्छीभूत कौ अंग २५/२८*

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*४१. साच्छीभूत कौ अंग २५/२८*
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सुनो तो हरि हरि देखो तो हरि हरि, कहो तो हरि हरि कहिये ।
कहि जगजीवन समझि रांम रट, दूजी बाट१ न बहिये ॥२५॥
(१. बाट=मार्ग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सुनने योग्य प्रभु हैं देखने योग्य भी वह ही हैं । और कहने योग्य भी हरिनाम ही है । यह बात सत्य है अतः ऐसा समझकर राम राम रटते रहो अन्य कोइ मार्ग उचित नहीं है ।
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सब अंग करता अकरता, नाथ निरंजन रांम ।
कहि जगजीवन ताहि भजि, सरि आवै सब कांम ॥२६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब कर्ता व अकर्ता स्वयं प्रभु का नाम राम ही है । उसे स्मरण करने से सारे काज स्वयं सिद्ध हो जाते हैं ।
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कहि जगजीवन आपणां, आप करै हरि कांम ।
विरंचि बीचि दे मांहि ह्वै, सुरति संवारै रांम ॥२७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि स्वयं के सारे कार्य स्वयं करते हैं । वे जो रचते हैं उसमें जीव के चित को स्वयं लगाते हैं ।
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सावधान सनमुख रहै, जस है तस कहै तास ।
सोइ साध सूझै सकल, सु कहि जगजीवनदास ॥२८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बड़ी सावधानी से प्रभु सन्मुख रहना है वे जैसे हैं उनकी वैसी ही महिमा कहनी है । और यह वे ही साधु जन कह पाते हैं जिन्हें परमात्म स्वरूप दिखता है ।
इति साच्छीभूत कौ अंग संपूर्ण ॥४१॥
(क्रमशः)

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