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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग २१/२४*
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लिपै बिना सौ सब करै, पंडित कवि सब ठांम ।
तजि सायर द्रग देवता, जगजीवन भजि रांम ॥२१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में जो बिना लिप्त हुये सब करते हैं चाहे किसी का कोइ कार्य हो वह उसे अपना जान करते हैं वे पण्डित व कवि नैत्र रुपी लायक दैव को भी त्यजय मानते हैं । सिर्फ स्मरण को ही आधार मानते हैं ।
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जगजीवन जीव नां करै, नारायण सौं नेह ।
घड़ी पहर स्त्रिंगार मैं, खोवै मिनखा देह९ ॥२२॥
(९. मिनखा देह=मनुष्य शरीर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह जीव प्रभु से प्रेम न कर अपनी सजावट में ही समय व्यर्थ खोते हैं । इस प्रकार यह अपना मनुष्य जीवन बिगाड़ रहे हैं ।
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पांव एक सौ साठ है, सिर जाकै चालीस ।
जगजीवन जोकों ग्रहौ, उधरौ विस्वा बीस ॥२३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वेदों में चालीस मण्डल कहे गये है उनके फिर चार दिशा रुप है । ऐसे वे एक सो साठ की गणना में होते हैं । अब जीव इनमें से जो ग्रहण करे उससे ही उसका उद्धार हो सकता है ।
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दोय पाव अध सेर है, द्वै अधसेर न सेर ।
कहि जगजीवन सेर मंहि, रांम नांम धन ढेर१ ॥२४॥
(१. ढेर=राशि)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब दो पाव मिलते हैं तो वह परिमाप आधा सेर होता है दो दो आधा सेर मिलते हैं तो पूरा सेर माप होता है । पूर्णता तब है जब अपरिमित स्मरण करो ।
(क्रमशः)

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