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*दादू नीका नांव है, हरि हिरदै न बिसारि ।*
*मूरति मन मांहैं बसै, सांसैं सांस संभारि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*आदि शंकराचार्य-भारत के संत*
*भजगोविंद मुढ़मते-ओशो*
धर्म व्याकरण के सूत्रों में नहीं है, वह तो परमात्मा के भजन में है। और भजन, जो तुम करते हो, उसमें नहीं है। जब भजन भी खो जाता है, जब तुम ही बचते हो; कोई शब्द आस-पास नहीं रह जाते, एक शून्य तुम्हें घेर लेता है। तुम कुछ बोलते भी नहीं, क्योंकि परमात्मा से क्या बोलना है ! तुम्हारे बिना कहे वह जानता है। तुम्हारे कहने से उसके जानने में कुछ बढ़ती न हो जाएगी।
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तुम कहोगे भी क्या ? तुम जो कहोगे वह रोना ही होगा। और रोना ही अगर कहना है तो रोकर ही कहना उचित है, क्योंकि जो तुम्हारे आंसू कह देंगे, वह तुम्हारी वाणी न कह पाएगी। अगर अपना अहोभाव प्रकट करना हो, तो बोल कर कैसे प्रकट करोगे ? शब्द छोटे पड़ जाते हैं। अहोभाव बड़ा विराट है, शब्दों में समाता नहीं, उसे तो नाच कर ही कहना उचित होगा। अगर कुछ कहने को न हो, तो अच्छा है चुप रह जाना, ताकि वह बोले और तुम सुन सको।
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भजन-कीर्तन, गीत और नाच है। वे भाव को प्रकट करने के उपाय हैं। बिना कहे तुम भजन हो जाओ, तुम गीत हो जाओ, इस तरफ शंकर का इशारा है। ये पद बड़े सरल हैं, सूत्र बड़े सीधे हैं-और शंकर जैसे मेधावी पुरुष ने लिखे हैं। शंकर की सारी वाणी में 'भज गोविन्दम्' से मूल्यवान कुछ भी नहीं है। क्योंकि शंकर मूलतः दार्शनिक हैं। उन्होंने जो लिखा है, वह बहुत जटिल है; वह शब्द, शास्त्र, तर्क, ऊहापोह, विचार है। ले
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किन शंकर जानते हैं कि तर्क, ऊहापोह और विचार से परमात्मा पाया नहीं जा सकता; उसे पाने का ढंग तो नाचना है, गीत गाना है; उसे पाने का ढंग भाव है, विचार नहीं; उसे पाने का मार्ग हृदय से जाता है, मस्तिष्क से नहीं। इसलिए शंकर ने ब्रह्म-सूत्र के भाष्य लिखे, उपनिषदों पर भाष्य लिखे, गीता पर भाष्य लिखा, लेकिन शंकर का अंतरतम तुम इन छोटे-छोटे पदों में पाओगे। यहां उन्होंने अपने हृदय को खोल दिया है। यहां शंकर एक पंडित और एक विचारक की तरह प्रकट नहीं होते, एक भक्त की तरह प्रकट होते हैं।
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'हे मूढ़, गोविन्द को भजो, गोविन्द को भजो, क्योंकि अंतकाल के आने पर व्याकरण की रटन तुम्हारी रक्षा न करेगी।'
'हे मूढ़, गोविन्द को भजो।'
मूढ़ता क्या है ? शंकर तुम्हें मूढ़ कह कर कोई गाली नहीं दे रहे हैं। अत्यंत प्रेमपूर्ण वचन है उनका यह।
भज गोविंदम्, भज गोविंदम्, भज गोविंदममूढ़मते।
'हे मूढ़, भगवान को भज, गोविन्द को भज।'
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पंडित और पूछ भी क्या सकता है ! जो वह जानता है, वही सोचता है, दूसरों को भी जना दे। हम वही दूसरों को दे सकते हैं, जो हमारे पास है। शंकर किसे मूढ़ कहते हैं ? उसे मूढ़ कहते हैं, जो जानता तो नहीं है, लेकिन व्याकरण को रट लिया है; शब्द का ज्ञाता हो गया है; शास्त्र से जिसकी पहचान हो गई है; जो शास्त्र को दोहरा सकता है, पुनरुक्त कर सकता है; शास्त्र की व्याख्या कर सकता है।
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पंडित को मूढ़ कह रहे हैं शंकर। अगर पंडित को मूढ़ न कहते होते, तो 'हे मूढ़, गोविन्द को भजो, गोविन्द को भजो, क्योंकि अंतकाल के आने पर व्याकरण की रटन तुम्हारी रक्षा न करेगी', अचानक व्याकरण को याद करने की जरूरत नहीं थी। मूढ़ थोड़े ही-जिनको हम मूढ़ कहते हैं, अज्ञानी-वे थोड़े ही व्याकरण रट रहे हैं। पंडित रट रहा है। और भारत में यह बोझ काफी गहरा हो गया है। यह इतना गहरा हो गया है कि करीब-करीब हर आदमी को यह खयाल है कि वह परमात्मा को जानता है, क्योंकि परमात्मा शब्द को जानता है।
*भज गोविंदम मूढ़मते ~ आदि शंकराचार्य*

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