बुधवार, 10 अप्रैल 2024

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*दादू होना था सो ह्वै रह्या, और न होवै आइ ।*
*लेना था सो ले रह्या, और न लिया जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न : आपके स्वास्थ्य को देख कर बहुत चिंता होती है। आपने दुनिया को समझाने में अपनी आत्मा उंडेल रख दी, लेकिन लोग बदलने की बजाय आपको मिटा देना चाहते हैं। आप इतना श्रम क्यों कर रहे हैं ?
उत्तर : शरीर तो मिटेगा ही। वह अगर प्रेम के रास्ते पर मिट जाए तो उससे बड़ा कोई सौभाग्य नहीं। शरीर तो जीर्ण-जर्जर होगा ही, लेकिन अगर वह कुछ लोगों के जीवन में आनंद की किरण पैदा कर जाए, तो धन्यभाग है।
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इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग मुझे सुन कर बदलेंगे या न बदलेंगे। लेकिन सत्य के अनुभव के साथ ही साथ उसकी छाया की तरह करुणा भी आती है, जो कहती है कि कोई बदले या न बदले, लेकिन तुम कम से कम पुकार तो दे दो। यह कसूर न रहे तुम्हारे ऊपर कि तुमने पुकार न दी थी। कोई यह न कह सके कि तुम चुप रहे।
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मुझे तो अब शरीर की कोई जरूरत नहीं है। मेरी यात्रा तो पूरी हो चुकी; काफी देर हुए पूरी हो चुकी। जो जानना था, जान लिया। जो पाना था, पा लिया। अब उसके पार कुछ भी नहीं है। ये जो थोड़े से दिन बीच में हैं- जब कि शरीर अपने आप छूटेगा, अगर इन थोड़े से दिनों में कुछ लोगों के जीवन में भी दीये जल जाएं और कुछ लोगों के जीवन में भी मुस्कुराहट आ जाए...और कुछ लोगों के जीवन में दीये जल रहे हैं और मुस्कुराहट आ रही है। और कुछ लोगों के पैरों में घूंघर, और कुछ लोगों के ओंठों पर बांसुरी। जो मुझे मिटा देना चाहते हैं, वे व्यर्थ परेशान हो रहे हैं। मैं तो वैसे ही मिट जाऊंगा। यहां कौन सदा रहने को है ?
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लेकिन उन लोगों की कोशिश, जो मुझे मिटा देना चाहते हैं, शायद वह भी प्रकृति का और नियति का नियम है, कि जितने जोर से मुझे मिटाने की कोशिश की जाएगी, उतने ही जोर से कुछ लोगों की अंतरात्मा भी जागेगी। अगर मैं दस दुश्मन पैदा कर लूंगा तो एक दोस्त भी पैदा हो जाएगा। मैं दोस्त की गिनती करता हूं, दुश्मनों की क्या फिकर करनी। और मैंने काफी मित्र पैदा कर लिए हैं।
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शायद वैसा दुनिया में पहले कभी नहीं हुआ। क्योंकि बुद्ध की दौड़ बंधी थी बिहार तक। जीसस की दौड़ बंधी थी जूदिया तक। सॉक्रेटीज तो कभी एथेंस नगर को छोड़ कर बाहर भी नहीं निकला। मैंने सारी दुनिया में पुकार दी है। हजारों लोगों ने उस पुकार को सुना है। करोड़ों दुश्मन पैदा हो गए हैं। लेकिन मैं दुश्मनों का हिसाब नहीं रखता। मैं तो अपने दोस्तों का हिसाब रख रहा हूं।
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जिस मात्रा में दुश्मन बढ़े है, उसी मात्रा में दोस्तों का बल भी बढ़ा है, उनकी हिम्मत भी बढ़ी है, रूपांतरित होने का उनका इरादा भी मजबूत हुआ है। और यह देख कर, कि इतने लोग मुझे मिटा देने को राजी हैं, मुझ पर मिट जाने को भी बहुत लोग राजी हुए हैं। इसलिए चिंता की कोई भी जरूरत नहीं है।
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मुझे एक क्षण को भी यह खयाल नहीं आया है कि मैंने कोई भी कदम गलत उठाया हो। यह देह तो छूट ही जाती है। खाट पर छूटती है। निन्यानबे प्रतिशत लोग खाट पर मरते हैं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, खाट पर मत सोया करो। खाट जैसी खतरनाक चीज दुनिया में दूसरी नहीं है। निन्यानबे प्रतिशत लोग वहीं मरते हैं। रात चुपचाप उतर कर नीचे फर्श पर सो गए।
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शुरू चाहे खाट पर किया ताकि कोई कुछ न कहे, लेकिन रात चुपचाप नीचे उतर गए- अगर बचना हो। क्योंकि खाट कितनों को खा गई है, इसका तो खयाल करो। फांसी पर तो कभी कोई मरता है मुश्किल से। उसकी कोई गिनती नहीं है। मगर तुम खाट से बड़ी दोस्ती रखते हो और सूली से बड़ी दुश्मनी रखते हो। शरीर तो जाएगा। वह जाने को ही बना है। जो आया है, वह जाने को ही आया है। और चूंकि यह शरीर दुबारा अब आने को नहीं है।
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और जो इन सांसों से बोल रहा है, अब कभी दुबारा किन्हीं और सांसों से नहीं बोलेगा। इसका पड़ाव आ गया। इसकी मंजिल आ गई। यह मेरा आखिरी जीवन और आखिरी यात्रा है। इन आखिरी दिनों में जितने लोगों तक मैं जीवन के परम सत्य की खबर पहुंचा सकूं- चाहे मेरी कोई भी दुर्दशा क्यों न हो। मेरा कुछ छीना नहीं जा सकता। जो मौत छीन ही लेगी, उसको अगर और किसी ने छीन लिया, तो मुझसे नहीं छीना, मौत से छीना। मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
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मैं आनंदित हूं, क्योंकि जितने लोगों को मैं अपने हृदय की बात कह सका हूं, इस दुनिया में पहले कोई आदमी नहीं कह सका। और जितने लोगों ने मुझे प्रेम किया है, इतना प्रेम भी किसी आदमी को उसके जीवन में कभी नहीं किया गया। और जितने लोगों ने मुझे घृणा की है, इतनी घृणा भी किसी आदमी को उसके जीवन में नहीं की गई। इसको भी मैं सौभाग्य समझता हूं। क्योंकि जो आज मुझे घृणा करते हैं, हो सकता है कल मुझे प्रेम भी करें। क्योंकि घृणा का प्रेम में बदल जाना बहुत मुश्किल नहीं है। शायद घृणा उनका ढंग है प्रेम के मंदिर तक पहुंचने का।
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एक छोटी सी घटना मुझे याद आती है। यहूदियों में हसीद फकीर हुए। जिस फकीर ने हसीद परंपरा को जन्म दिया- बालसेम, उसने अपनी पहली किताब लिखी थी। और यहूदियों के सब से बड़े रबाई, सब से बड़े पुरोहित को अपने शिष्य के हाथ भेंट की। शिष्य को कहा: इस किताब को ले जाओ। प्रधान रबाई को अपने हाथ से देना, किसी और को नहीं। और तुम्हें भेज रहा हूं इसलिए कि रबाई की क्या प्रतिक्रिया होती है, रवाई क्या कहते उनके चेहरे पर क्या भाव आता है, उस सब का तुम रत्ती-रत्ती खयाल रखना।
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लौट कर मुझे बताना होगा। कोई चूक न हो। और तुम मेरे सब से ज्यादा सजग शिष्य हो इसलिए तुम्हें भेज रहा हूं। हसीद क्रांतिकारी परंपरा है। यहूदी रबाई पुरानी, सड़ी-गली, मुर्दा संस्कारों की बात है। हसीद होने के लिए क्रांति से गुजरना होता है। यहूदी होने के लिए सिर्फ यहूदी के घर में पैदा होना होता है।
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शिष्य जब पहुंचा तो प्रधान रबाई और उसकी पत्नी, दोनों बगीचे में बैठ कर चाय पी रहे थे। उसने बालसेम की किताब रबाई के हाथों में दी। रबाई ने किताब ली और पूछा कि किसकी किताब है ? और जैसे ही उस शिष्य ने कहा कि बालसेम की यह पहली किताब है, उसके वचनों का पहला संग्रह है, जैसे रबाई की आंखों में अंगारे आ गए, जैसे उसके चेहरे में अचानक राक्षस पैदा हो गया, उसने किताब को उठा कर बगीचे के बाहर सड़क पर फेंक दिया।
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और कहा कि तुमने हिम्मत कैसे की इस घर में प्रवेश की? और तुमने वह गंदी किताब मेरे हाथों में कैसे दी? अब मुझे स्नान करना होगा। वह युवक सब देखता रहा। तभी पत्नी ने कहा कि इतना नाराज न हों। आपके पास इतना बड़ा पुस्तकालय है, उसमें वह किताब भी किसी कोने में पड़ी रहती तो कोई हर्ज न था। और अगर उसे फेंकना ही था, तो इस युवक के चले जाने के बाद फेंक दे सकते थे।
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युवक लौटा। बालसेम ने पूछाः क्या हुआ ? युवक ने कहाः प्रधान रबाई के हृदय में कभी कोई परिवर्तन हो सके, इसकी संभावना नहीं, लेकिन उसकी पत्नी शायद कभी परिवर्तित हो जाए। और पूरी घटना कही। बालसेम हंसने लगा। उसने कहा कि तू पागल है। तुझे मनुष्य के मनोविज्ञान का पता नहीं। और अगर तुझे मेरी बात का भरोसा न हो, तो लौट कर जा। रबाई ने किताब उठा ली होगी और पढ़ रहा होगा।
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और उसकी स्त्री के बदलने की कोई संभावना नहीं है। उसकी स्त्री के मन में घृणा ही नहीं है, प्रेम तो बहुत दूर है। लेकिन रबाई उत्तेजित हो उठा, भावाविष्ट हो उठा, मेरा काम बन गया। तू लौट कर जा। मैं तुझसे कहता हूं, रबाई किताब पढ़ रहा होगा। और युवक लौट कर गया और देख कर दंग रह गया। सड़क से किताब नदारद थी। उसने झांक कर देखा, रबाई बगीचे में किताब को लिए हुए देख रहा है। रबाई की पत्नी मौजूद नहीं है।
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घृणा प्रेम का ही उलटा रूप है, शीर्षासन करता हुआ रूप है। इसलिए जो मुझे प्रेम करते हैं, उनकी संख्या भी बड़ी है; और जो मुझे घृणा करते हैं, उनकी संख्या तो बहुत बड़ी है। और मैं दोनों के प्रति आभारी हूं। क्योंकि जो प्रेम करते हैं, वे तो मेरे रस में डूबेंगे ही डूबेंगे; जो घृणा करते हैं, वे आज नहीं कल, कल नहीं परसों राह से किताब को उठा कर पढ़ेंगे। उनके भी बचने का उपाय नहीं है।
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उन्होंने घृणा करके ही अपने आप मेरे साथ संबंध जोड़ लिया। यूं नाराजी में जोड़ा है, मगर संबंध तो संबंध है। मैं तुम्हारी मनःस्थिति समझ सकता हूं, तुम्हारा प्रेम समझ सकता हूं। लेकिन तुम्हें भरोसा दिलाना चाहता हूं कि तुम्हारे प्रेम के सहारे ही जिंदा हूं, अन्यथा अब मेरे लिए कोई जीने का कारण नहीं है। अब तुम्हारी आंखों में चमकती हुई ज्योति को देख लेता हूं, तो सोचता हूं कि और थोड़ी देर सही, शायद कुछ और लोग मधुशाला में प्रवेश कर जाएं।
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शायद कुछ और लोगों को इस रस के पीने की याद आ जाए। तुम मेरे शरीर की चिंता न करो। शरीर की चिंता अस्तित्व करेगा। तुम तो सिर्फ इस बात की चिंता करो कि जब तक मैं हूं, तब तक तुम पियक्कड़ों की इस जमात को कितनी बड़ी कर सकते हो, कर लो। यह जमात जितनी बड़ी हो जाए, मैं उतनी देर तुम्हारे बीच रुकने का तुम्हें आश्वासन देता हूं..
सद्गुरु ओशो -
कोंपलें फिर फूट आईं

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