शनिवार, 6 अप्रैल 2024

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*सब देखणहारा जगत का, अंतर पूरै साखि ।*
*दादू साबित सो सही, दूजा और न राखि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुनी है एक सूफी कहानी। एक सदगुरु के पास दो युवक आये और उन्होंने कहा, हमें परमात्मा से मिला दें। हमें उसकी आंख में आंख डाल कर देख लेना है।
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उस फकीर ने दोनों की तरफ देखा और दो कबूतर, जो उसके पास ही घूम रहे थे, उसके ही पाले हुए कबूतर थे; उठा कर दोनों को एक-एक कबूतर दे दिया और कहा कि एक काम करो; यह तुम्हारी परीक्षा है। तुम ऐसी जगह चले जाओ, जहां तुम्हें कोई न देख रहा हो, वहां इन कबूतरों को मार डालना। और जब तुम ऐसी जगह पा लो, जहां तुम्हें कोई नहीं देख रहा है और कबूतर को मार डालो, तो लौट आना। फिर आगे की बात शुरू होगी।
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दोनों युवक उठे; भागे। एक तो गया पास की गली में; देखा: कोई भी नहीं है; दोपहर थी; लोग सोये थे। गरमी की दोपहर–कौन निकलता है घर से ! चारों तरफ देखकर, जल्दी से उसने, दीवाल की आड़ में खड़े होकर कबूतर की गरदन मरोड़ दी। लौट कर आ गया; उसने चरणों में कबूतर रख दिया। कहा कि पास गली में ही मार लाया। यह भी कोई बड़ी बात थी ! यह कैसी परीक्षा ?
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गुरु ने कहा, तुझसे मेरा मेल न बैठ सकेगा। तू किसी और को खोज। मैं तुझे परमात्मा की आंख में आंख डालने का उपाय न बात सकूंगा। दूसरा युवक तो महीनों तक लौटा। कहते हैं: साल बीतने लगा, तब वह आया। तब तो उसे पहचानना ही मुश्किल हो गया।
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दाढ़ी बढ़ गई थी; रूखे बाल। कपड़े जो पहने था, फट गये थे। धूल-धंवास से भरा हुआ। पहचानना मुश्किल था; काला पड़ गया था; और कबूतर जिंदा ले आया था। गुरु के चरणों में कबूतर रख दिया और उसनने कहा कि मुझे क्षमा करें; मैं हार गया। यह परीक्षा मैं पास न कर सका; और यह परीक्षा मैं पास न कर सकूंगा।
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साल भर जो भी मैं कर सकता था, मैंने कर के देख लिया। ऐसी जगह न पा सका, जहां कोई भी न देख रहा हो, अंधेरी गलियों में गया, तलघरों में उतरा; वीरानों में चला गया; रेगिस्तानों में गया। तलघरों के भीतर जाकर अंधेरे से अंधेरे में खड़ा हो गया, लेकिन वहां भी कबूतर देख रहा था ! टक-टक उसकी आंखें ! तो मैंने कबूतर की आंखों पर पट्टियां बांध दी। लेकिन मैं देख रहा था।
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तो फिर मैंने अपनी आंखों पर भी पट्टियां बांध लीं। लेकिन तब मुझे याद आया कि परमात्मा तो देख ही रहा है। मैं ऐसी जगह कहां खोजूंगा, जहां परमात्मा न देख रहा हो? यह तो आपने बेबूझ पहेली दे दी। यह कबूतर अपना वापस ले लें; मुझे क्षमा कर दें। मैं हार गया; मैं दुखी हूं कि एक छोटा-सा काम न कर सका, जो आपने दिया था। मैं अयोग्य हूं; मैं अपात्र हूं।
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गुरु ने उसे गले लगा लिया और कहा कि तू रुक; काम हो गया; तू परीक्षा में पार उतर गया। तेरा पहला साथी हार गया। वह तो घड़ी भर में मार कर आ गया था ! घड़ी भी न लगी थी। वह तो बगल की गली में मार कर आ गया था। उसे तो कुछ तो कुछ होश ही न था; उसे तो कुछ समझ ही न थी कि यह क्या कर रहा है। तुझे होश है; तुझे समझ है। तेरी आंख परमात्मा की तरफ है; मिलन हो जायेगा। इतना ही जिसे याद है कि परमात्मा देख रहा है, फिर बहुत कठिनाई नहीं है। प्रतीक्षा करो।…
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पहली बात: भीतर की तरफ मुड़ो; और दूसरी बात: प्रतीक्षा करो। उसे पता है कि तुम्हारी कितनी जरूरत है अभी; तुम कितनी पी सकोगे, तुम कितनी झूल सकोगे।…तो अपनी तैयारी बढ़ाये जाओ। जैसे-जैसे तुम्हारी पात्रता बढ़ती है, तुम्हारा पात्र गहरा होता है, वैसे-वैसे उसकी शराब तुममें ज्यादा उतरने लगेगी। अपनी आंख साफ किये जाओ, जैसे-जैसे तुम्हारी आंख साफ होने लगेगी, वैसे-वैसे उसकी आंख तुम्हारी आंख में झांकने लगेगी।
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जिस दिन तुम्हारी आंख परिपूर्ण शुद्ध हो जाती है, उस दिन चकित हो कर हैरान होओगे कि तुम्हारी आंख और उसकी आंख दो नहीं है–एक ही है। बड़े अपूर्व संत एकहार्ट ने कहा है कि जब मैंने परमात्मा को वस्तुतः देखा, तो मैं चकित हो गया, क्योंकि मैंने उसे बाहर नहीं देखा; मैंने देखा कि वह मेरी आंख से झांक रहा है। वहीं देख रहा है। वही मेरे भीतर देखनेवाला है; वही द्रष्टा है।
ओशो

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