रविवार, 28 अप्रैल 2024

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*अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास ।*
*जोति स्वरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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गावन हारा कदे न गावै,अनबोल्या नित गावै ।
कबीर कहते हैं, जो असली गायक है, वह गाता थोड़े ही है। उससे गीत पैदा होता है। असली गायक स्वयं ही गीत है। वह गाता नहीं। क्योंकि गाना तो कृत्य है। असली गायक की तो आत्मा ही गीत है। उसका होना गीतपूर्ण है। तुम उसके पास जाकर संगीत सुनोगे।
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वह चुप बैठा हो, तो भी उसके चारों तरफ मधुर संगीत गूंजता हुआ तुम पाओगे। एक गुनगुनाहट हवा में होगी। एक गीत उसके होने से पैदा रहेगा। एक सन्नाटा–लेकिन संगीतपूर्ण। तुम्हें छुएगा, स्पर्श करेगा, तुम्हें भर देगा। गावन हारा कदे न गावै।
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इसलिए तो परमात्मा का गीत तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता। क्योंकि वह गा नहीं रहा, वह स्वयं गीत है। जब तक तुम परिपूर्ण शून्य न हो जाओ तुम उस गीत को न सुन पाओगे–अवधू, शून्य गगन घर कीजै। जैसे ही तुम शून्य-घर में प्रविष्ट हो जाओगे, वैसे ही वह गीत सुनाई पड़ने लगेगा, जो परमात्मा है।
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गावन हारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।
बोलता नहीं, फिर भी नित उसका गीत चलता रहता है
नटवर पेखि पेखना पेखै, अनहद बेन बजावै।
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और जिसने उसको देख लिया, नाचनेवाले को, उस गानेवाले को, उस नटवर को, उस नटराज को, उसने सब देख लिया। क्योंकि उसका नृत्य ही तो सारा दृश्य जगत है। ये जो तुम्हें फूल-पत्ते, आकाश, वृक्ष, बादल दिखाई पड़ रहे हैं, ये सब उसके नृत्य की भाव-भंगिमाएं हैं। पूरा अस्तित्व नाच रहा है। इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा की जो गहनतम प्रतिभा गढ़ी है, वह नटराज है। और सारी प्रतिमाएं फीकी हैं। नटराज बेजोड़ है। नाचनेवालों का राजा ! वह दिखाई नहीं पड़ता।
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तिब्बत में एक कथा है, कि एक व्यक्ति नाचते-नाचते ऐसी दशा में पहुंच गया कि जब वह नाचता था, तो नाच ही रह जाता था और नाचनेवाला खो जाता था। सभी नर्क उसी दशा में पहुंच जाते हैं। तब उनके जीवन में अनूठी घटनाएं घटती हैं। वह नर्तक इस अवस्था में पहुंच गया वर्षों के नृत्य के बाद। जब वह नाचता था, तो शुरू में तो लोगों को दिखाई पड़ता था।
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थोड़ी देर में धुंधला हो जाता। और थोड़ी देर में धुएं की रेखा रह जाती और थोड़ी देर में नाचनेवाला खो जाता। कुछ दिखाई न पड़ता। लेकिन जो शांत हो सकते थे, वह उसके नृत्य को पूर शरीर पर स्पर्श होते अनुभव करते। क्योंकि उसके नृत्य से सारी हवा तरंगायित होती।
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नटराज का अर्थ है, ऐसा नर्तक, जिसके भीतर नर्तक और नृत्य में भेद नहीं है। जो स्वयं अपना नृत्य है। जो नर्तक भी है और नृत्य भी है। यह सारा अस्तित्व उसका नर्तन है। और इस नर्तन को तुम समझ लो तो नर्तक मिल जाए। नर्तक मिल जाए, तो तुम नर्तक को समझ लो।
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प्रकृति को तुम ठीक से पहचान लो, तो परमात्मा की प्रतिमा उभर आए। या तो परमात्मा से तुम्हारा मिलन हो जाए, तो प्रकृति तुम्हें उसकी भाव-भंगिमा मालूम होने लगे। आकाश पर घिरते बादल उसके चेहरे पर ही घिरते हैं। झीलों में चमकती शांति उसकी आंखों में ही चमकी है, उसकी आंखों की ही गहराई है।
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सब वही है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, सबका सारभूत! इसलिए तुम उसे खोजने जाओ, तो कहीं मिलेगा नहीं। तुम इस भ्रांति में मत रहना कि कहीं किसी दिन पहुंच जाओगे, परमात्मा आमने-सामने खड़ा है और तुम जैरामजी कर रहे हो। कभी तुम्हें परमात्मा आमने-सामने न मिलेगा। वह सब है।
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गावना हारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर पेखि पेखना पेखै..... और जिसने उसे देख लिया, नृत्य के विस्तार को देख लिया। उसने सारा दृश्य समझ लिया, जिसने द्रष्टा को समझ लिया। अनहद बेन बजावै–उसकी वीणा तो अनहद बज रही है। तुम्हीं को अपने कान सम्हालने हैं। उसकी वीणा तो कभी रुकती नहीं। तुम्हें ही अपने को सम्हाल लेना है, ताकि तुम वीणा को सुन सको।
🌸आचार्य रजनीश ओशो🌸

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