रविवार, 28 अप्रैल 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४५/४८*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४५/४८*
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कहि जगजीवन रांमजी, रोपा रोपै खांइ ।
जे धर बीरज सोइ फल, घटि बधि कही न जाइ ॥४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो बोया है वह ही खायेंगे जैसा बीज है वैसा ही फल होगा जरा भी घटता बढता नहीं है ।
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ध धौ४ त तौ अक्शर५ उभै, इन मांहि सकल बिलास ।
अब आवै उस एक करि, सु कहि जगजीवनदास ॥४६॥
(४. ध धौ=धर्म) {५. त तौ=तत्त्व(ब्रह्म)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ध एवं त इन दो अक्षरों में ही सकल संसार का ऐश्वर्य है । ये दोनों धर्म व तत्त्व जो कि ब्रह्म है प्रभु सानिध्य में आते हैं ।
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कहि जगजीवन तीन खड़६, करउ छाट गंधेल७ ।
सावण मास हर्या सकल, ए कुदरत का खेल ॥४७॥
(६. खड़=घास) (७. गंधेल=विषमय या निरर्थक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है उसे सब वैसा ही भासता है । जैसे सावन मास में प्राकृतिक रुप हे ही हरा होता है पर इस ऋतु में दृष्टि हीन हुये गर्दभ को तीनों ही ऋतु शीत ताप वर्षा में सावन ही दिखता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, तुलसी मंजर जाइ ।
सघन बाग मंहि पीपली, निहचल रहै समाइ ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तुलसी मंजरी हटाने पर ही वृद्धि को प्राप्त होती है । किन्तु वहीं पीपल का वृक्ष चाहे कितने ही सघन वन में हो बिना रखाव के भी एकदम निश्चल खड़ा रहता है । तुलसी विशेष रुष से ठाकुर प्रिया है । व पीपल ब्रह्म भरोसे है ।
(क्रमशः)

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